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________________ ' ले जायेंगे, ले जायेंगे, दिलवाले गोलियाँ ले जायेंगे।' 'हाथ से बोली जब छूट जाती है, तो एक दो तीन हो बताशे में कड़वी दवा देने का तर्क जाती है।' 4 'चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है, तिजोडी की चाबी सेठानी जे के पास है।' ये भद्दी पैरोडियों वैराग्यप्रबोधन के दुर्लभ अवसरों की गरिमा का गला घोंट देती हैं, उसे निम्नस्तरीय 'कामेडी शो' में परिवर्तित कर देती हैं। फिल्मी धुनों का मनोविज्ञान यहाँ पूजाभक्ति आदि के कार्यक्रमों में संगीत-नृत्य के प्रयोग का निषेध नहीं किया जा रहा है। संगीत-नृत्य भी पूजा के अंग हैं। तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि आाहिक पर्व में देव नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं और संगीतनृत्य के साथ जिनप्रतिमाओं की पूजा करते हैं। यहाँ भजन-पूजन में सिर्फ फिल्मी संगीत के प्रयोग का निषेध किया जा रहा है। इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। मनोविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है Law of association अर्थात् साहचर्य का नियम। जिन दो पदार्थों को हम परस्पर सम्बद्ध अवस्था में बारबार देखते, सुनते और अनुभव करते हैं, वे स्मृतिपटल में परस्पर सम्बद्धरूप में ही अंकित हो जाते हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि जब उन दो पदार्थों में से कोई एक पदार्थ देखने-सुनने में आता है, तब वह दूसरे पदार्थ की स्मृति जगा देता है। जैसे हम राम और श्याम, दो मित्रों को कई दिनों तक साथ-साथ देखें और उसके बाद कभी राम को अकेला देखें, तो हमें फौरन श्याम की याद आ जायेगी और हम उससे पूछ उठेंगे 'आज अकेले कैसे? श्याम कहाँ है ? यही साहचर्य का मनोवैज्ञानिक निमय फिल्मी धुनों में काम करता है। जो फिल्मी गीत जिस फिल्मी धुन के साथ हमारे कानों में बार-बार गूँजता है. वह गीत उस धुन के साथ ही हमारे मानस पटल पर अंकित हो जाता है। फलस्वरूप जब वह धुन हमारे कानों में पड़ती है तब उस गीत के बोल अपने आप हमारे स्मृतिपटल पर उभर आते हैं। भले ही उस धुन में धार्मिक गीत के नये बोल फिट कर दिये जायें और उनके साथ वह धुन बजायी जाय, तो भी साहचर्यनियम के कारण उस धुन से जुड़े मौलिक फिल्मीगीत के बोल याद आ जाते हैं। न केवल गीत के बोल, बल्कि फिल्म की वह सिचुएशन (भावभूमि) और से नायक नायिका और उनके वे सारे शृंगारिक या अश्लील हावभाव जिन पर वह फिल्माया गया है. स्मृतिफलक पर नाचने लगते हैं और उतने समय के लिये श्रोताओं का उपयोग (चित्तवृत्ति) विषयग में रंग जाता है। कितने अश्लील फिल्मी गीतों की धुनों पर धार्मिक गीत रचे जा रहे हैं और मंदिरों में गाये जा रहे हैं यह बतलाने में शर्म आती है। इस कार्य में तो हमने फिल्मों की मर्यादा भी तोड़ दी है। फिल्मों में कम से कम धार्मिक गीत तो सात्विक संगीत में ही गूंथे जाते हैं, जैसे 'तोरा मन दर्पन बन जाये' या 'हमको मन की शक्ति देना' आदि । किन्तु हम अपने धार्मिक गीत उन फिल्मी गीतों · सितम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International की धुनों पर भी बनाते हैं, जिनके बोल अत्यन्त अश्लील, फूहड़ और भद्दे हैं तथा जो बेहद कामुक दृश्यों पर फिल्माये गये हैं। कुछ प्रगतिशील श्रावक भजन-पूजन में फिल्मी संगीत के प्रयोग का औचित्य सिद्ध करने के लिये तर्क देते हैं कि जैसे रोगी को रोगमुक्त करने के लिए बताशे में रखकर कड़वी दवा दी जाती है वैसे ही आधुनिक बालक-बालिकाओं और युवक-युवतियों को धर्म की ओर आकृष्ट करने के लिय फिल्मी संगीत का सहारा लेना उचित है। + बताशे की बात मुझे मान्य है, लेकिन फिल्मी संगीत बताशा नहीं है, मदिरा है। बताशे में रखकर कड़वी दवा दी जाय, किन्तु उसे मदिरा की बूंदों में घोलकर पिलाना श्रेयस्कर नहीं है। दूसरी बात यह है कि मन्दिरों, होटलों और सिनेमाघरों में फर्क होता है। मन्दिरों से चन्दन और धूप की ही सुगन्ध चारों ओर फैलनी चाहिए, बाजारू सेन्ट की नहीं। वैसे ही देवालयों से शास्त्रीय संगीत, भक्तिसंगीत की ही स्वर लहरी निकलनी चाहिए, अश्लीलता के साथ जुड़े फिल्मी संगीत की नहीं। फिल्मी संगीत की शिक्षा सिनेमाघरों से मिल जाती है, मन्दिरों से भी उसी संगीत की शिक्षा मिले तो सिनेमा घरों और मन्दिरों में क्या फर्क रहेगा? मन्दिर तो सुसंस्कारारोपण की पाठशालाएं हैं। वहाँ सात्विक शास्त्रीय संगीत और साहित्यिक छन्दों के अभ्यास की ही प्रेरणा मिलनी चाहिए। यदि मन्दिरों से भी शास्त्रीय छन्दों और शास्त्रीय संगीत का प्रयोग लुप्त हो गया तो हमारी परम्परागत संस्कृति का लोप हो जायेगा । जैन संस्कृति के नाम पर फिल्मी संगीत और फिल्मी नृत्य जैन मन्दिरों और उत्सवों में फिल्मी संगीत के माध्यम से ही भजन-पूजन के सारे कार्य सम्पन्न होते हैं। इससे ऐसा लगता है जैसे फिल्मी संगीत और फिल्मी नृत्य ही जैन संस्कृति के अंग हैं। इसी कारण जब राष्ट्रीय स्तर पर जैन बालक-बालिकाओं को कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करना होता है तब वे मंच पर फिल्मी संगीत और नृत्य के ही नमूने पेश करते हैं, जिससे पता चलता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम कितने हीन हैं। 'जिनभाषित' के गतांक में श्री कुमार अनेकान्त का एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने बतलाया है कि भगवान् महावीर की 2600वीं जन्म जयन्ती पर इण्डोर स्टेडियम नई दिल्ली में जो महोत्सव आयोजित हुआ था उसमें जैन बालाओं ने 'मैंने पायल जो छमकायी, फिर भी आया न हरजाई वाले बेहूदे गीत की धुन पर धार्मिक नृत्य किया था। यह सम्पूर्ण जैन समाज के सिर को शर्म से झुका देने वाली घटना है। इस विषय में हमें गंभीरता से विचार करना होगा और तय करना होगा कि क्या इस विकृति को फलने-फूलने देना है या इस पर यहीं विराम लगाना है ? रतनचन्द्र जैन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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