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________________ देवस्तुति कविवर बुधजन प्रभु पतित-पावन, मैं अपावन चरन आयो सरन जी। । यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरन जी। छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दष्टि नासा पै धरैं। वसु प्रातिहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रवि-छबि को हरै।। शब्दार्थ - पतित = पापी, पावन = पवित्र, विरद = कीर्ति, शब्दार्थ- छवि = मुखमुद्रा, नासा = नासाग्र, वसु = आठ, निहार = देखकर, मेट = नष्ट करो। कोटि = करोड़ों, रवि = सूर्य, छवि = कान्ति। अर्थ- हे प्रभु! आप पापियों को पवित्र करते हैं, मैं अपवित्र | अर्थ- हे भगवान्। आपकी मुखमुद्रा वीतरागी है, आप नग्न हूँ। आपके चरणों की सरण में आया हूँ। हे प्रभु! आप अपनी कीर्ति दिगम्बर हैं, आपकी दृष्टि नासाग्र है, आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं, को देखकर मेरा जन्म-मरण नष्ट कीजिए। अनंत गुणों से सहित है, करोड़ों सूर्यों की कांति भी आपके सामने फीकी हो जाती है। तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकार जी। या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रमगिन्यो हितकार जी।। मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदयरवि आतम भयो। मो उर हरष ऐसो भयो, मन रंक चिन्तामणि लयो।।3।। शब्दार्थ - पिछान्या = पहचाना, अन = अन्य/दूसरे, विविध शब्दार्थ- तिमिर = अंधकार, मेरो = मेरा, उर = हृदय, हरष = अनेक, सेती = कारण, भ्रम = भूल, गिन्यो = समझता रहा, | = उल्लास, मनु = मानो, रंक = भिखारी। हितकारी = उपकारी। अर्थ- हे भगवन्। आपके दर्शन से मेरा मिथ्यात्वरूपी अन्धकार अर्थ- हे जिनेन्द्र! मैंने आपको नहीं पहचाना और दूसरे अनेक | नष्ट हो गया और आत्मरूपी सूर्य का उदय हुआ है। मेरे हृदय में ऐसा । प्रकार के देवताओं को मानता रहा। इस बुद्धि के कारण अपनी आत्मा उल्लास हुआ है जैसे किसी भिखारी को चिन्तामणि रत्न मिलने पर को नहीं पहचाना व इसी भूल को अपना उपकारी समझता रहा। | होता है। भव विकट वन में कर्म बैरी, ज्ञान धन मेरो हो। तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिर्यो।। मैं हाथ जोड़-नवाय मस्तक, वीनउँ तुव चरउँनजी। सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन-सुनहु, तारन तरनजी।। शब्दार्थ - भव = संसार, विकट = भयानक, हर्यो = हरण कर लिया, फिर्यो = घूम रहा हूँ। अर्थ- इस संसाररूपी भयानक जंगल में कर्म रूपी शत्रुओं ने मेरा ज्ञान रूपी धन हरण कर लिया है, इस कारण हित को भूलकर भ्रष्ट हो गया हूँ और दुःखदायी गतियों में भ्रमण कर रहा हूँ। शब्दार्थ- वीनउँ = विनती करता हूँ, तुव = आपके। अर्थ- मैं हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर आपके चरणों में विनती करता हूँ। आप सर्वश्रेष्ठ हैं, तीनों लोकों के स्वामी है, और जीवों को भवसागर से पार उतारने के लिये नौका है। हे जिनेन्द्र! मेरी विनती सुनिये। जाँचू नहीं सुरवास, पुनि नरराज परिजन-साथजी। धन घड़ी यो धन दिवस यों ही, धन जनम मेरो भयो। बुध जाच हूँ तुव भक्ति भव-भव, दीजिए शिवनाथ जी।। अब भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुजी को लख लयो।। शब्दार्थ- जाँचू = माँगना, बुध = बुधजन कवि, भव = जन्म। शब्दार्थ - धन = धन्य, लख = दर्शन, भाग = भाग्य। अर्थ- हे भगवन्! मैं देवपद, चक्रवर्ती पद तथा सम्बन्धियों अर्थ - यह घड़ी धन्य है, यह दिन धन्य है, और आज मेरा | का साथ नहीं माँगता, मैं यही माँगता हूँ कि जन्म-जन्म में आपकी जन्म भी धन्य हो गया है। आज मेरे भाग्य का उदय हुआ है, जो | भक्ति हमें मिलती रहे। वह मुझे प्रदान कीजिए। आज आपके दर्शन मुझे प्राप्त हुए हैं। अर्थकर्ता : ब्र. महेश श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर सितम्बर 2001 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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