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॥एँ नमः॥
॥श्री गौतमस्वामिने नमः॥ श्री प्रेम-भुवनभानु-जयघोष-जितेन्द्र-गुणरत्न-रश्मिरत्नसूरिसद्गुरुभ्यो नमः॥
पूर्वमहर्षि श्री मल्लिषेणविरचितं पूर्वाचार्य श्री सिंहसूरीश्वरविरचितवृत्तियुतं ॥ श्री सज्जनचित्तवल्लभम् ।।
प्रस्तावना संसार से विरक्त होकर जीव जब दीक्षित होता है तब से शिष्य का गुरु में विलीनीकरण हो जाने से शिष्य का स्वतंत्र अस्तित्व रहता ही नहीं है। शिष्य के लिये गुरु ही भगवान् है । अनुपम आस्था, आदर और बहुमानभाव से भावित शिष्य का व्यवहार भी गुरु के प्रति अहोभावप्लावित रहता है। कर्मवशात् गुरु कभी आचार-विचार से पतित हो जाय तो शिष्य का कर्त्तव्य है कि योग्यकाल में विनयपूर्ण वचनों से उन्हे सन्मार्ग में लाये । यही गुरुऋण से मुक्त होने का सफल प्रयास है। स्थानांगसूत्र में तीन का प्रत्युपकार दुष्कर कहा है। १) माता-पिता, २) मालिक, और ३) गुरु । ये तीनों के उपकार का ऋण उतारने का एक ही उपाय है-उन्हें धर्म में स्थापित करे-स्थिर करें। शास्त्रों में एक सुप्रसिद्ध दृष्टान्त है। गुरु शैलकाचार्य की आचारशिथिलता देखकर ५०० शिष्य गुरु को छोड गये फिर भी पंथकमुनि ने अपने गुरु को नहीं छोड़ा, योग्य अवसर की खोज में रहे, बहुमानभाव में जरा भी ओट न आने दी, योग्य अवसर मिलते ही विनयपूर्ण वचनों से पुनः गुरु को धर्म में स्थिर किया। प्रस्तुत ग्रन्थरचना के प्रयोजनरूप में तीन कारण टीकाकार ने बताये है। १) निज गुरु के दुर्गतिपतन के डर से, २) जैन धर्म की साधुता का परिपालनार्थ, और ३) श्रोता और वक्ता दोनों के कामविकार निवारणार्थ । ग्रन्थकार ने इस छोटे से ग्रन्थ में बहुत विषयों का समावेश किया है-चारित्र के बिना ज्ञान शोभायुक्त नहीं है, द्रव्यचारित्र, अशुचिभावना, स्त्रीचरित्र, शरीरराग,
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