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ज्ञान-साधना का अनुमोदनीय पुरुषार्थ
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आचार्य जिनमणिप्रभसूरिजी. पू. गच्छाधिपति स्वरतरगच्छ
पूजा में गाया जाता है - इसपंचम काल में दो का ही हमें सहारा है।1. जिनप्रतिमा 2. जिनवाणी।
जिन शासन के इतिहास में आचार्य देवर्धिगणी क्षमाश्रमण ने सर्वप्रथम जिन देशना को सुरक्षित, संरक्षित करने का क्रान्तिकारी निर्णय लिया। आगमों को लिपि-देह के माध्यम से परमात्मा महावीर की वाणी को हजारों वर्षों के लिये संरक्षित कर दिया। जिन वाणी की सुरक्षा में उन आचार्यों का बहुत बड़ा योगदान है, जिन्होंने समय समय पर परमात्मा महावीर की वाणी को विविध विषयों के माध्यम से अभिनव ग्रन्थों का सर्जन किया । ऐसा कोई विषयव विद्या नहीं है, जिस पर जैनाचार्य भगवंतो की कलम ने पुरुषार्थनहीं किया हो।व्याकरण,न्याय, काव्य, चरित्र,आख्यान,गीतिका आदिहर विद्याद्वारा उन्होंने अपने अन्तर हृदय के समर्पण को अभिव्यक्त किया। __ मेरे दादा गुरु आचार्य जिनहरिसागरसूरि एवं मेरे गुरुदेव आचार्य जिनकान्तिसागरसूरि ने जैसलमेर के ज्ञान भंडारों की प्रतिलिपियों अपने सानिध्य में करवाई थी। लगभग 20 वर्षों तक लगातार यह कार्य चलता रहा था।लिपिकारों से प्रतिलिपियां करवाकर उनका संशोधनवे स्वयं करते थे। इस कार्य में कई विदुषी साध्वियों का भी योगदान रहा था । आगम-सुरक्षा के प्रति जो जागरुकता श्रीसंघ में होनी चाहिये, उसका अभाव दृष्टिगोचर होता है। इसके कारणों की खोज करने पर ये मुख्य कारण प्रतीत होते हैं - 1. ज्ञान के प्रति रुचि का अभाव :- पूर्व में काफी स्थानों पर हस्तलिखित ग्रन्थों का भंडार था। श्री संघ के अधीन था । श्रावक-वर्ग उसका मूल्य नहीं समझ पाया । उसके लिये ये रद्दी के समान थे । इस कारण हजारों ग्रन्थ कूडे में डाल दिये गये । असावधानी के कारण भंडार खुले नहीं। उनमें जीव पड गये..... उधही लग गई।इस प्रकार कितने ही ग्रन्थ नष्ट हो गये। 2. अर्थ लोलुपता:-जब लोगों का इसका मूल्य समझ में आने लगा तो उन्होंने अर्थ-लोभ में आकर ग्रन्थों का विक्रय कर दिया। परिणामस्वरूपबडी संख्या में ग्रन्थ विदेशों के पुस्तकालयकीशोभाबन गये। 3. अधिकारत्व भाव:-ज्ञान भंडार के प्रति अधिकार का भाव आजाने से कई स्थानों के भंडार वर्षों से ऐसे ही बंद पडे हैं। उनकी प्रतिलेखना भी नहीं हो पाती।न उपयोग में आते हैं, न उनकी सुरक्षा है।
वर्तमान का समय बदला है। ज्ञान भंडारों के प्रति, ज्ञान की पोथियों के प्रति जागरुकता का विकास हुआ है । पिछले दस वर्षों में ज्ञान के क्षेत्र में अनुमोदनीय कार्य हुए हैं । प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन/पुर्नप्रकाशन का कार्य तीव्र गति से चल रहा है। साधुसाध्वियों में पठन पाठन के प्रति रूचिका लगातार अभिवर्धन हो रहा है । अध्ययन, संशोधन हेतु शा। बाबुलालजी सरेमलजी का पुरुषार्थ परम अनुमोदनीय है। हमने अनुभव किया है कि आपकोई भी पुस्तक उन्हें लिखकर अतिशीघ्र प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान-साधना के क्षेत्र में चतुर्विध श्री संघ और आगे बढे और ज्ञान-ध्यान के द्वारा अपने सम्यक्त्व का निर्मलीकरण कर क्रमशः कर्मक्षय कर अपनी आत्मा का कल्याण करें,यही कामना है।
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ આનંદતીર્થ
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