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________________ The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4, 1974 जैन दर्शन की आधारभित्ति : अनेकांतवाद एवम् स्याद्वाद डॉ. महावीर सरन जैन वस्तु स्वरूप एवम् तत्वबोध दृष्टि : अनेकांत एवम् अनेकांतवाद' अनेकांतवाद—अनेके अन्ता यस्मिन् स अनेकांत - यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण (तत्व) एवम् अनन्त धर्म होते हैं । पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है अर्थात् व्यवहार क्षेत्र में सापेक्ष दृष्टि से एक पदार्थ की अन्यों से अनन्त प्रकार की सापेक्षताएँ होती हैं । विशेष्य के जितने विशेषण हैं - अच्छा, बुरा, छोटा, बड़ा, भारी, हल्का, दूर, पास, ऊँचा नीचा आदि आदि वे सब किसी सापेक्षता में ही हैं । 'अनेकांत' शब्द का अभिधेय जीवादिक पदार्थ का रूप, रस, गन्ध आदि गुणों आदि से संवलित बताना मात्र नहीं है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्मों की सत्ता की स्वीकृति तो अन्य दार्शनिकों ने भी की है किन्तु पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक मानने वाले सभी दर्शन अनेकांतवादी नहीं हैं । एक वस्तु में वस्तुत्वोत्पादिका परस्पर विरुद्ध शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत का विशिष्टार्थक है - 'वस्तुत्वनिष्पादक विरुद्ध शक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः ।' इस सम्बन्ध में जो आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि प्रकृत में जो तत् है वहीं तत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य हैइस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादिका परस्पर विरुद्ध शक्तियों का उन्मेष ही अनेकांत है । " प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवम् स्वभावरूप से अस्तिरूप एवम् परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवम् परभाव के सत्ताभाव के कारण नास्तिरूप या असत् है । इस दृष्टि से प्राचार्य समन्तभद्र ने आह्वान किया कि ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो चेतन एवम् अचेतन समस्त पदार्थों को स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा सत्स्वरूप नहीं मानता और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल तथा परभाव की अपेक्षा असत्स्वरूप नहीं मानता । उन्होंने स्पष्टतः विवेचित किया कि बिना इसकी स्वीकृति के किसी भी ष्ट तत्व की व्यवस्था सम्भव नहीं हो सकती । एक वस्तु की अनेक स्थितिजन्य श्रनेकरूपता स्वीकार कर भगवान् महावीर ने विरुद्ध प्रतीत होने वाले मतवाद एक सूत्र में पिरो दिए । उन्होंने मानव के विवेक को जागृत किया; दृष्टि को व्यापक बनाया । एक निश्चित दृष्टि से ही विचार करने के प्राग्रह को समाप्त कर उन्मुक्त दृष्टि से विचार करने का मार्ग प्रशस्त किया । जिसे जानना है - उसका स्वरूप स्पष्ट होना चाहिए इसके लिए ज्ञाता को ज्ञेय के स्वरूप की दृष्टि से अपनी दृष्टि बनानी चाहिए, जानने के सम्यक् प्रविधि का निर्माण करना चाहिए । महावीर ने अपने अन्तःकरण को विवेक के साथ परखा; वे निर्ग्रन्थ बन गए । तत्वबोध की व्यापक एवम् सूक्ष्म दृष्टि के कारण ही वह वस्तु स्वरूप का अनेकान्तिक दृष्टि से प्रतिपादन कर सके। उन्होंने निर्भ्रान्त रूप में कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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