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आमुख
भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव ने समस्त राष्ट्र को नयी संचेतना से आंदोलित कर दिया । आज के युद्ध - जर्जर, रक्त-पिपासु और आत्मघाती विश्व को भगवान महावीर की अमोघ वाणी के रूप में नया संजीवन प्राप्त हुआ और दो सहस्र वर्ष पश्चात् भी नये संदर्भ में उसका प्रत्यावर्तन चरितार्थप्रतीत होता है। इसी रूप में प्रत्येक कल्प में यह कालातीत समवसरण घटित होता रहता है । आज की दुर्धर्ष तकनीकी प्रतिद्वंद्विता के तनाव में हम सब असाधारण ( abnormal ) हो गए हैं और आकस्मिक उत्तेजना के क्षणों में जीवन-यापन कर रहे हैं। आज अपना अस्तित्व संतुलित रखने के लिए अगाध सहिष्णुता, दाक्षिण्य और उदारता की आवश्यकता है जिसका एक मात्र उत्तर अनेकांतवाद के दर्शन में ही उपलब्ध हो सकता है ।
भगवान महावीर ने जो हमें कर्म के प्रति निष्ठा और स्वयम् के प्रति आत्मविश्वास प्रदान किया वह उनको सबसे बड़ी देन है । प्रसिद्ध जैन- विचारक श्री वीरेन्द्रकुमार जैन ने 'अनुत्तर योगी' : भाग - २ में राजर्षि वर्धमान कुमार और शुक्र को परिचर्चा के रूप में इस तथ्य को बहुत सुन्दर रूप में उद्घाटित किया है। वर्धमान के शब्दों में- "कर्म- -चक्र का निर्दलन अरिहन्त अकेले ही करते हैं | अपने बाँधे कर्म-बन्धन को काटने में दूसरे की सहायता सम्भव नहीं । अरिहन्तों ने पर सहाय न कभी स्वीकारी, न स्वीकारते हैं, न कभी स्वीकारेंगे । सर्वजयी जिनेन्द्र अपने ही वीर्य के बल से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने ही वीर्य के बल से मोक्षलाभ करते हैं ।"
विक्रम विश्वविद्यालय ने भी इस महान् पर्व पर अपनी अर्चना अर्पित करने का जो संकल्प किया है उसमें विचारगोष्ठी और व्याख्यानमाला के अतिरिक्त भगवान के सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र की तात्त्विकता को जन-जन को उपलब्ध कराने के लिए विक्रम शोध पत्रिका का एक शोध विशेषांक भी भगवान महावीर को समर्पित करने का अनुष्ठान किया जिसमें धर्म, विज्ञान, साहित्य और साधना खण्डों के अतिरिक्त वर्तमान परिपार्श्व में जैन-धर्म के मौलिक योगदान की भूमिका को भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है । विद्वान् विचारकों, चिन्तकों और साधकों ने इस विशेषांक में विश्व के महान् परित्राता भगवान महावीर के जीवन, कृतित्व और संदेश को अत्यन्त निरपेक्ष भाव से प्रस्तुत किया है । उनके अमोघ वाक्य ने "अप्प दीपो भव" के रूप में मानव की अप्रतिहत आस्था का केतु प्रतिष्ठित किया । आज की अवसर्पणी प्रवृत्ति को उत्सर्पणी बनाने की साधना ही इसके मूल में अन्तर्निहित है । 'जैन
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