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विक्रम
गार्हस्थिक स्तर पर पाला जाता है तब ये 'अणुव्रत' कहे जाते हैं और मुनि के स्तर पर इनकी संज्ञा 'महाव्रत' रहती है । इनके अलावा अन्य व्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय । पार्श्वनाथ तक चातुर्याम चलता रहा । इसमें ब्रह्मचर्य सम्मिलित था । परिग्रह को मूर्च्छा कहा गया है, ब्रह्मचर्य एक मूर्च्छा है । नर-नारी सम्बन्धों के निर्धारण और मूल्यांकन में इन दोनों व्रतों की महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं । अपरिग्रह से ब्रह्मचर्य तक की हमारी व्रत यात्रा का समीचीन भाष्य होना आवश्यक है । इससे नारी - व्यक्तित्व के कई आयाम व्यक्त हो सकेंगे ।
८. जैनदर्शन के अनेकान्त' 'स्याद्वाद' सम्बन्धी सिद्धान्तों ने भी नारी के प्रति सदियों से चले आ रहे परम्परित बर्ताव और दृष्टिकोण को चुनौती दी। महावीर के समय में जो शक्तियाँ दुराग्रह पर अड़ी हुई थीं, उनको सहने और उन्हें सही पटरी पर रखने में अनेकान्त दृष्टि का बहुत बड़ा प्रदेय है । इस नये बौद्धिक ढाँचे में अब नारी को लेकर किन्हीं प्रात्यन्तिकताओं में चलना सम्भव नहीं था । इस तरह पुरुष - संदर्भों में जो नारीपूर्वग्रह थे, वे लगभग समाप्त हो गए और एक स्वस्थ नर-नारी- सम्बन्ध - संरचना की दिशा में समाज, धर्म और संस्कृत के पग उठने लगे ।
६. महावीर की समत्व दृष्टि भी इस सन्दर्भ में उल्लेख्य है । महावीर से पूर्व की नारी अन्धी सामाजिक परम्पराओं और रूढ़ियों में जकड़ी हुई नारी थी; वह पुरुष की स्वामित्व भावना की शिकार हुई थी । उसे जिन्स की तरह निर्जीव माना जाता था । उसकी खरीद-फरोख्त होती थी । यही कारण था की उसके हृदय में पुरुष समाज तथा उसके द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं के प्रति प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो गयी थी । भगवान् महावीर ने इस दुर्भाव का प्रक्षालन किया। उन्होंने 'वस्तु को उसकी वास्तविकता में ' समझने की दृष्टि दी । जो जिस व्यक्तित्व में है, उसे उस व्यक्तित्व में जानने-देखने के संस्कार को उन्होंने विकसित किया । यह वैज्ञानिक था, और इसने ऐसे युग में जब लोग दुराग्रहों और पूर्वग्रहों में जी रहे थे, इसने विवेकपूर्ण और संतुलित जीवन-दर्शन को प्रतिपादित किया । इससे मानवीय सम्बन्धों को लेकर क्रांन्ति हुई । जब जैनदर्शन सम्पूर्ण लोक और उसमें स्थित द्रव्यों को पूर्णतः स्वतन्त्र मानता है, तो ऐसा कौन-सा कारण है कि नारी के स्वतन्त्र व्यक्तित्व और उसकी सत्ता को स्वीकार न किया जाए ? भगवान् के इस उद्घोष ने कि 'वर से कभी वैर शान्त नहीं होता' कई नयी रचनात्मक सम्भावनाओं को जन्म दिया। इसकी छाया-तले नारी के हृदय से पूर्वसंचित विद्वेष और प्रतिकार को दूर किया और विश्वमंत्री के लिए नये क्षितिजों का निर्माण किया । करुणा, मैत्री, निर्वैर और समवेदना पर आधारित मानवीय सम्बन्धों के पुनः संस्थापन के कारण हम भगवान् महावीर को सामाजिक दृष्टि से भी कभी विस्मृत नहीं कर सकते । नारी मुक्ति और नवोन्नयन की दृष्टि से भगवान् महावीर की जो देन है, उसे कभी भी भुलाया नहीं जा
सकता ।
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