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विक्रम
महाभारत युद्ध के कई शताब्दी पूर्व से ही वैदिक धर्म के उत्तरोत्तर वृद्धिगत उत्कर्ष के सन्मुख श्रमरणधर्म अनेक अंशों में पराभूत-सा हो गया था और काशी, मगध, विदेह आदि पूर्व प्रदेशों की ओर दबता चला गया था । किन्तु उस महायुद्ध के परिणाम स्वरूप वैदिक आर्यों की राज्यशक्ति एवम् वैदिकधर्म का प्रभाव दोनों पतनोन्मुख हुए और भारतीय इतिहास का उत्तर वैदिकयुग प्रारम्भ हुआ, जो साथ ही श्रमरणधर्म के पुनरुत्थान का युग था 1 तीर्थंकर नेमि और नारायण कृष्ण इस श्रमरण पुनरुत्थान के प्रस्तोता थे और २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ( ८७७-७७७ ईसा पूर्व) उक्त आन्दोलन के सर्व महान नेता थे । अन्त में अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर (५६६ - ५२७ ईसा पूर्व ) द्वारा उक्त पुनरुत्थान पूर्णतया निष्पन्न हुआ ।
महावीर का युग महामानवों का महायुग था और उनमें स्वयम् उनका व्यक्तित्व सर्वोपरि था । उसी युग में शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्म की स्थापना की । यह भी श्रमण परम्परा का ही एक सम्प्रदाय था । आजीविक सम्प्रदाय प्रवर्तक मक्शलिगोशाल प्रभृति अन्य अनेक श्रमण धर्मोपदेष्टा भी उस काल में अपने-अपने मतों का यत्र-तत्र प्रचार कर रहे थे । उस काल के अथवा उत्तरवर्ती युगों के जनों और स्वयम् महावीर ने यह कभी नहीं कहा कि उन्होंने किसी नवीन धर्म की स्थापना की है । वह तो पूर्ववर्ती तेईस तीर्थंकरों की धर्म-परम्परा का ही प्रतिनिधित्व करते थे । उसी का स्वयम् श्राचरण करके लोक के सन्मुख उन्होंने अपना सजीव आदर्श प्रस्तुत किया । उन्होंने उक्त धर्मव्यवस्था में कतिपय समयानुसारी सुधार संशोधन भी किये, उसके तात्विक एवम् दार्शनिक आधार को सुदृढ़ एवम् व्यवस्थित किया और चतुविध जैनसंघ का पुनर्गठन किया तथा उसे सशक्त संख्या बना दी ।
महावीर के पार आदि पूर्ववर्ती तीर्थंकरों का जैनधर्म पहले से ही देश के अनेक भागों में प्रचलित था । कालदोष से उसमें जो शिथिलता आ गयी थी वह दूर हुई और उसमें नया प्रारण संचार हुआ । महावीर के निर्वारण के पश्चात् उनकी शिष्य परम्परा में क्रमशः गौतम, सुधर्म एवम् जम्बू नामक तीन अर्हत् के वलियों ने उनके संघ का नेतृत्व किया । तदनन्तर क्रमशः पाँच श्रुतकेवली हुए जिनमें भद्रबाहु प्रथम ( ईसा पूर्व ४थी शती के मध्य के लगभग) अन्तिम थे । उस समय उत्तर भारत के मगध आदि प्रदेशों में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा, जिसके परिणाम स्वरूप जैन साधु संघ का एक बड़ा भाग दक्षिण भारत की ओर विहार कर गया । इसी घटना में संघभेद के वह बीज पड़ गए जिन्होंने आगे चलकर दिगम्बर - श्वेताम्बर सम्प्रदाय-भेद का रूप ले लिया । गच्छ संघ-गरण साधु आदि में भी शनैः शनैः विभक्त होता गया और कालानान्तर में अन्य अनेक सम्प्रदाय भी उत्पन्न हुए । उपरोक्त दुर्भिक्ष के बाद यह भी अनुभव किया जाने लगा कि परम्परा से चले आए श्रुतागम का जितना जो अंश सुरक्षित रह गया है उसका पुस्तकीकरण कर दिया जाय । दूसरी शती ईसापूर्व के द्वितीय पाद में उड़ीसा में हुए महामुनि सम्मेलन में यह प्रश्न उठा और मथुरा के जैन साधुनों ने इस सरस्वती आन्दोलन का अथक प्रचार किया । फलस्वरूप ईसापूर्व प्रथम शती से ही श्रागमोद्धार एवम् पुस्तकीकरण का कार्य
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