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The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4, 1974
ऐतिहासिक जैनधर्म (विद्यावारिधि डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ )
जैनधर्म का परम्परात्मक इतिहास अधुनात्मक ज्ञात पाषाणयुगीन आदिम मानव से प्रारम्भ होता है । उस काल का मानव, असभ्य, असंस्कृत किन्तु सरल एवम् निर्दोष था । उसकी इच्छाएँ एवम् आवश्यकताएँ प्रत्यन्त सीमित थीं और जीवन प्रायः पूर्णतया प्रकृत्याश्रित था । उस युग में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं थी, न ग्राम और नगर थे और न कोई उद्योग धन्धे । एक के बाद एक होने वाले चौदह कुलकरों या मनुनों ने उस काल के मानवों का नेतृत्व एवम् मार्गदर्शन किया और समयानुसारी सरलतम व्यवस्थाएँ दीं । यह युग जैन परम्परा में भोग-भूमि कहलाता है ।
अन्तिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी पत्नी मरुदेवी से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव का जन्म हुआ । इनके जन्म स्थान पर ही प्रयोध्या नाम का प्रथम नगर बसा । ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम कर्मभूमि ( कर्मप्रधान जीवन) का ॐ नमः किया, ग्राम नगर बसाए, कृषि, शिल्प श्रादि उद्योग धन्धों का प्रचलन किया, विवाह प्रथा, समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था स्थापित की, लोगों को अक्षर ज्ञान एवम् अंकज्ञान दिया । अन्त में गृहत्यागी होकर तपस्या द्वारा श्रात्मशोधन किया, केवलज्ञान प्राप्त किया और धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया । लोक के कल्याण के लिए जिस सरलतम धर्म का उन्होंने उपदेश दिया वह अहिंसा, संयम, तप एवम् योग प्रधान मोक्ष मार्ग था । उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे- उन्हीं के नाम से यह देश भारतवर्ष नाम से प्रसिद्ध हुआ । भरत के अनुज बाहुबलि परम तपस्वी थे— दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोल आदि की अत्यन्त विशालकाय गोम्मट मूर्तियाँ उन्हीं की हैं ।
ऋषभदेव के उपरान्त क्रमशः अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदत्त, शीतल, श्रेयस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति कुन्थु, अर एवम् मल्लि नाम के श्रमण तीर्थंकर हुए जिन्होंने अपने-अपने समय में उसी अहिंसाप्रधान आत्म धर्म का उपदेश दिया । ये तीर्थंकर एक दूसरे से पर्याप्त समयान्तर से हुए 1 इसमें से प्रथम तीर्थंकर तो प्रागैतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यता के युग से भी पूर्ववर्ती हैं । दूसरे से नौवें पर्यन्त उक्त सभ्यता के समसामयिक प्रतीत होते हैं । दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ के समय में ब्राह्मरण - वैदिक धर्म का उदय हुआ प्रतीत होता है, जिसका कालान्तर में उत्तरोत्तर उत्कर्ष एवम् प्रसार होता गया । बीसवें तीर्थंकर मुनिसुवृन के तीर्थंकाल में ही अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी (ऋषभदेव की संज्ञा इक्ष्वाकु भी थी) महाराज रामचन्द्र हुए जो अन्ततः अर्हत्- केवलि होकर मोक्षगामी हुए। इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ
मिथिलापुरी में अध्यात्मवाद का प्रचार किया जिसने कालान्तर से औपनिषदिक ग्रात्मविद्या का रूप लिया । बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि महाभारत काल में हुए और नारायरण कृष्ण के ताऊजात भाई थे । कृष्ण उस युग की राजनीति के तो सर्वोपरि नेता थे ही, उन्होंने ब्राह्मण और श्रमण, अथवा वैदिक और ब्रात्य, संस्कृतियों के समन्वय का भी स्तुत्य प्रयत्न किया ।
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