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________________ १४० जैनहितैषी [भाग १४ ११-मुदित प्रतिमें ' सम्मत्तणाणदंसण...'' सशोधन किया गया है, बड़ी सावधान के साथ नामकी गाथा नं. ५३७ से आगे जो 'मोह- शुद्ध और साफ छापना चाहिये । और जहाँक्खयेण...' तथा 'सुहमंच णाणकम्मं ' नामकी तक बन सके प्रस्तावना, विषयसूची, श्लोकानुक्रदो गाथाएँ दी हैं वे लिखित प्रतिमें नहीं हैं। मणिका. और परिशिष्ट आदिके द्वारा उनके ___ इस संपूर्ण प्रदर्शनसे हमारा अभिप्राय यह संस्करणोंको उपयोगी बनानेका अच्छा यत्न प्रकट करनेका नहीं है कि अमुक लेखक अथवा करना चाहिये । * आशाहै कि जैनग्रंथोंके संपाप्रकाशकने जानबूझकर कोई भूल की है और दक और प्रकाशक महाशय हमारी इस समन यथार्थ अयथार्थका निर्णय करना ही इस योचित सूचनापर अवश्य ध्यान देंगे और इस लेखका कोई उद्देश्य है । बल्कि इसके द्वारा हम बातकी पर्वाह नहीं करेंगे कि ऐसा करनेमें हमें सिर्फ यह जतलाना चाहते हैं कि जैनग्रन्थोंके कुछ विशेष अर्थव्यय और समयव्यय करना प्रकाशित करनेमें जितनी सावधानीसे काम लेना होगा, वह तो करना ही चाहिये । चाहिये उतनी सावधानीसे वह नहीं लिया जाता और न उनके प्रकाशयोग्य संस्करणोंके तय्यार करनेमें उतना परिश्रम किया जाता है जितना विना मूल्य । कि किया जाना चाहिये । बहुधा चलता काम देखनमें आता है जिसके हमारे पास अनेक हमारे यहांसे नो पुस्तकें विना मूल्य भेजी उदाहरण मौजूद हैं । राजवार्तिक जैसे महान जाती थीं उनमेंसे 'अनित्य भावना' और १ विवाहका उद्देश्य 'ये दो पस्तकें समाप्त हो ग्रंथ भी जिनके बारबार छपनेकी जल्दी कोई आशा नहीं की जा सकती, बहुत कुछ अशुद्ध गई हैं । हम चाहते थे कि बम्बईसे इनकी छपे हैं । ग्रंथोंके अशद्ध छपनेकी हालत में कभी कुछ भार कापियाँ मँगाकर भेजनेका काम बराकभी यथार्थ वस्तुस्थितिके मालूम करने अथवा " बर जारी रखें परंतु प्रेमीजीके पत्रसे मालूम किसी ऐतिहासिक तत्त्वकी खोज लगाने में हुआ कि बहाँ उनके कार्यालयमें इनकी कोई भी बहुत बड़ी असुविधा उत्पन्न होती है। कापी नहीं रही । अतः अब हमारे भाइयोंको दूसरी एक बड़ी हानि यह भी है कि छपे इनके लिये पत्र भेजनेका कष्ट नहीं उठाना ग्रंथोंके अधिक प्रचारसे जब कालांतरमें चाहिए । हाँ, 'मेरी भावना' नामकी पुस्तक हस्तलिखित ग्रंथों अथवा उनकी प्राचीन प्रति- बराबर विना मूल्य भेजी जाती है । जिन्हें याँका लोप जायगा तब उस समय अशादियों. अपने तथा अपने इष्टमित्रादिकोंके लिये उसकी को ठीक करने अथवा यथार्थ वस्तस्थितिको दो दो चार चार कापियोंकी जरूरत हो वे निर्णय करनेका साधन ही एक प्रकारसे नहीं डाक खचेके लिये आध आनेका टिकट भेजकर रहेगा और उससे अनेक वाधाएँ उपस्थित होगी। हमसे मॅगा सकते हैं। अतः जैन ग्रंथोंको, अनेक प्राचीन प्रतियोंपरसे -संपादक। मीलान करके, उन प्रतियोंमें जिन जिन बार्ताका *वसुनन्दिश्रावकाचारका प्रकृत संस्करण इन परस्पर भेद हो उसे फुट नोटों द्वारा सूचित सब बातोंसे शून्य है और इसलिये उसका एक करके और यह दिखलाकर कि कहाँ कहाँकी आच्छा उपयोगी नवीन संस्करण छपनेकी जरूरत है। कौनकौनसी प्रतिपरसे ग्रंथका संपादन और संपादक।
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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