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________________ जैनहितैषी - [ भाग १४ तत्कालीन श्रमण संघ में अथवा कुछ काल प्रौढ टीको बनाकर, शान्त्याचार्य और-तक पीछे भी आगमाभ्यासी सैद्धान्तिकों में सिद्ध- जिनेश्वरसूरिने न्यायावतार ' के सटीक सेनसूरिके प्रति अनादरभाव अल्परूपमें भले वार्तिक रचकर, सिद्धसेनसूरिके जैनतर्कही जागृत रहा हो; परंतु, परवादियोंके किये शास्त्रविषयक सूत्रधारत्वका सगौरव समर्थन जानेवाले प्रचण्ड आक्रमणोंसे, जैनशासनकी किया है । प्रचण्डतार्किक वादी देवसूरिने उन्हें रक्षा करनेके लिये प्रमाण और नयवादके प्रबल अपना मार्गदर्शक बतलाया हैं; और आचार्य युक्तिपूर्ण सिद्धान्तों की स्थापनारूप जिस दुर्गम- हेमचंद्रने उनकी कृतियों के सामने अपनी विद्वदुर्ग मूलको वे दृढ बना गये हैं उसके कारण न्मनोरञ्जक कृतियोंको भी ' अशिक्षितालापउनके अनुगामी और पश्चाद्वर्ती सब ही समर्थ कला बतलाया है । जैन विद्वानों ने उनका बड़े गौरव के साथ स्मरण किया है । सुप्रसिद्ध तार्किक आचार्य मल्लवादीने सम्मति - प्रकरण की टीको लिखकर उनके प्रति अपनी उत्तम भक्ति प्रकट की है । जैनधर्मके अनन्यसाधारण तत्त्वज्ञ हरिभद्रसूरिने तो उन्हें साक्षात् अंत केवली ' लिखकर उनका अनुपम आदर किया है । तत्पश्चात् महात्मा सिद्धर्षिनें न्यायावतार ' की व्याख्याँ लिखकर, तर्कपञ्चानन अभयदेवसूरिने ' सम्मतिप्रकरण' की २५ हजार श्लोक-परिमित विस्तृत और ( अपूर्ण । ) ८ ८ १३४ १ यह टीका अब कहीं उपलब्ध नहीं है । ४-५ सौ वर्ष पहले की बनाई हुई एक ग्रन्थसूचिका हमारे पास है उसमें इस टीकाका नाम लिखा हुआ है । २ देखो, • पञ्चवस्तु ' ग्रन्थकी निम्न लिखित गाथायें • भण्णइ एतेण (i) अम्हाण- कम्मवाय (यो ) नो इहो । प्पो सहाववाओ सुअकेवलिणा ज ( ओ ) भणिअं ॥ आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए पइडिअ जसेण । दूसमणिसा-दिवागर- कप्पत्तणओ तदक्खेण ॥ — डेक्कनकालेजसंगृहीत हस्तलिखित पुस्तक पृ० १३१। ३ यह व्याख्या पाटणकी 'हेमचंद्राचार्यजैन सभा' की ओरसे छपकर प्रकाशित हुई है । इस व्याख्या के ऊपर राजशेखरसूरिका बनाया हुआ संक्षिप्त टिप्पणक भी है। ८ १ इस टीकाका थोड़ासा प्रारंभिक भाग काशीकी यशोविजय ‘जैनग्रंथमालामें प्रकाशित हुआ है । संपूर्ण ग्रंथ अभीतक नहीं छपा । २-३ जिनेश्वरसूरिके वार्तिकका नाम ' प्रमालक्षण : है और वह केवल न्यायावतार सूत्रके आदिम लोकका विस्तार स्वरूप है । इस ग्रन्थके विषयमें विशेष जानने के लिये देखो जैन हितैषी भाग १३ अंक९ - १० में मुद्रित हमारा 'प्रमालक्षण ' शीर्षक लेख | यह ग्रंथ अहमदाबादके सेठ मनसुखभाई भगुभाईने छपवाकर प्रकट किया है। शान्त्याचार्यका वार्तिक भी जिनेश्वरसूरि के वार्तिककी तरह न्यायावतारके प्रथम श्लोकहीकी व्याख्याहै। इसका नाम ' प्रमाणप्रमेयकलिका ' है । यह काशी के ' पंडित ' पत्रमें पं० विठ्ठलशास्त्री द्वारा संशोधित होकर प्रकाशित हुआ है; परंतु बहुत ही अशुद्ध छपा है । ४ देखो, ' स्याद्वादरत्नाकर' के प्रारंभ में निम्नलिखित श्लोक श्री सिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः प्रसिद्धा सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधान् निबन्धान्— शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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