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________________ १३२ जैनहितैषी [भाग १४. बार केवलदर्शन, इस प्रकार बारी बारीसे होते की बृहव्याख्या × लिखनेवाले दिवाकरजीहीहैं । अर्थात् एक क्षण ( जैन पारिभाषिक शब्द के नामधारी सिद्धसेन गणिने भी 'एकादीनि समय ) में केवलज्ञान रहता है और दूसरे भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्दाः।१-३१।' क्षणमें केवलदर्शन । इसी तरह प्रतिक्षण क्रमशः सूत्रकी व्याख्यामें, दिवाकरजीके विचारभेद पर केवलज्ञान और केवलदर्शनस्वरूप केवलीका अनेक वाग्बाण चलाये हैं । उनके कुछ उपयोग परिवर्तित हुआ करता है । सिद्धसेन वाक्य देखिएसुरिको यह विचार सम्मत नहीं है । वे इस “ यद्यपि केचित् पण्डितम्मन्याः सूत्राण्यन्यथाविचारमें युक्तिसंगतता नहीं समझते । तर्क और कारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धबुद्धयो वारंवारेयुक्तिसे वे इस मान्यताको अयुक्त सिद्ध करते णोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः । यत हैं। उनके विचारसे केवलीको केवलज्ञान और आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोग प्रतिपा'केवलदर्शन दोनों युगपत्-एक ही साथ होना दयन्ति ।” युक्तिसंगत है । और वास्तवमें, अन्तमें वे फिर ये जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और सिद्धसेनइन दोनोंमें परस्पर कोई भेद ही नहीं मानते- गणि आदि दिवाकरजीके विचार भेदमें केवल दोनोंको एक ही बतलाते हैं । इस विचारका आगम-प्रामाण्यकी दलीलके सिवा और कुछ उन्होंने अपने सम्मतिप्रकरण' में खूब ऊहा- नहीं कह सके। युक्तिसे वे भी दिवाकरजीके पोह किया है । सिद्धसेनजीके इस विचार- विचारके कायल होते थे, परंतु अन्तमें यही भेदके कारण, उस समयके सिद्धान्तग्रन्थपाठी कहकर छूट जाते थे कि युक्ति और तर्कसे और आगमभक्तिप्रवण आचार्यगण उनको चाहे जो सिद्ध होता हो परंतु आगमलिखित उल्लेखोंके विरुद्ध विचारको हम कभी आदर 'तम्मन्य । आदि कटाक्षपूर्ण विशेषणोंसे नहीं दे सकते। 'स्वमनीषिका सिद्धान्तविरोअलंकृत करके, उनके प्रति अपना सामान्य धिनी न प्रमाणम्, इत्यभ्युपेयते ।' 'न चान्यथा अनादर-भाव प्रकट किया करते थे। सिद्धसेनके जिनवचनं कर्त शक्यते सविदषापीति।' बाद सिद्धान्तग्रन्थपाठी आचार्यों में जिनभद्रगणि मालूम पड़ता है, इस प्रकारकी तर्कप्रियताके क्षमाश्रमण नामके एक बहुत समर्थ प्रतिभावान् कारण ही पिछले जैनसाहित्यमें दिवाकरजी आचार्य हुए हैं। इन्होंने जैनसूत्रोंके विस्खलित 'तार्किक' नामसे प्रसिद्ध रहे हैं। रहस्यको संकलित करनेके लिये विशेषावश्यक बहुतसे पाठक यह नहीं जानते होंगे कि भाष्य । * नामक महान ग्रन्थकी रचना की है। श्वेताम्बर आचार्योंके इस विशिष्ट मतभेदके इस भाष्यमें क्षमाश्रमणजीने दिवाकरजीके, उक्त बारेमें दिगम्बर आचार्योंका क्या मत है । उनके लिए हम यहाँ पर यह कह देना चाहते विचार-भेदका खूब ही खण्डन किया है और दिवाकरजीको आगमविरुद्धभाषी बतलाकर उनके ___x श्वेताम्बर संप्रदायमें तत्त्वार्थसूत्र पर यही एक सिद्धान्तको अमान्य ठहराया है । तत्त्वार्थसूत्र प्रसिद्ध और प्रौढ टीका है । यह टीका भाष्यके ऊपर लिखी गई है। ऐतिहासिक दृष्टिसे, तत्त्वार्थस्त्र* यह भाष्य, मलधारी आचार्य हेमचंद्रविरचित की दिगम्बर-श्वेताम्बरकी अन्य सब टीकाओंसे इस बृहव्याख्याके साथ काशीकी 'यशोविजय-ग्रंथमाला में टीकाका महत्त्व अधिक है। आगे हम इस विषयमें कुछ मुद्रित हुआ है। . विस्तारके साथ लिखनकी इच्छा रखते हैं। -लेखक ।
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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