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________________ अङ्क ४ ] विचित्र व्याह । 393333 फिर उनको धन दे कर अघको मनों मोल ले लेना है, या हत्याभागी अपनेको स्वयं सिद्ध कर देना है ॥ ७ ॥ वेश्याओंके हावभावसे चित्त विकृत हो जाता है, उनके सम्मेलनसे नरका पुण्य-पुत्र खो जाता है । इस कारण कुछ काम नहीं है वेश्याओंका कभी कहीं, अघ-सीढ़ी पर चढ़कर कोई, छू सकता है स्वर्ग नहीं ॥ ८ ॥ शुभ विवाह के समय सुहागिन स्त्रियाँ बुलाई जाती हैं, ज्ञातिबन्धुकी विधवायें भी वहाँ न आने पाती हैं । फिर रण्डाओं को नचवाना उसी व्याह में भला नहीं, जान बूझकर सिर पर लाना कभी चाहिए वला नहीं ॥ ९ ॥ हरिसेवक ! पर बात तुम्हारी, ठीक नहीं है क्यों मानूँ ! जो होता है कार्य सदासे उसको अनुचित क्यों जानूँ ? जो न सहारा गायक पावें गानशास्त्र तो उठ जावे, नृत्य गान हो नहीं जहाँ पर वह क्यों उत्सव कहलावे ॥ १० ॥ ऐसा कौन देश है जिसमें नृत्यगानका है न प्रचार, भारतहीने सबसे पहले किया नृत्यका आविष्कार । क्या कारण बोलो, हम क्यों फिर नृत्य गानसे घृणा करें ? अत्युत्तम विद्या की हत्या करनेसे कैसे न डरें ? ॥ ११ ॥ हाँ, आतशबाजी सचमुच ही बड़े अनर्थोंकी है मूल, उसके लिए द्रव्यको स्वाहा, कर देना नितान्त है भूल । तेरे ब्याहसमय में उसको कभी नहीं छुटने दूँगी, अपने हाथों अपनी आँखें, कभी नहीं फुटने दूँगी ॥ १२ ॥ गानवाद्यका और नृत्यका रखना है यदि इष्ट तुम्हें, तो क्या गायक नहीं मिलेंगे सच्चरित्र या शिष्ट तुम्हें । किसी भाँति पर वेश्याओंका नाच कराना ठीक नहीं, बुरे कर्म करके इस जगमें नाम कमाना ठीक नहीं ॥ १३ ॥ बुरे कर्म जो होते होवें उन्हें छोड़ देना है नीति, अच्छे भी यदि नये कर्म हों तो क्या उनमें करे न प्रीति ? शास्त्र - विहित जो साधुकर्म है उसे सनातन कहते हैं, चाहे कुछ हो निन्यकार्यसे सुजन दूर ही रहते हैं ॥ १४ ॥ यदि जननी ! तुमको करना है समयोचित सुमङ्गलाचार, तो गुरु-गुणि-विज्ञका करिए, तन, मन, धनसे शिष्टाचार | €3:033000 C1 1300 १२३
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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