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________________ ऐतिहासिक जैनव्यक्तियाँ । अङ्क ४ ] रत है कि ये कुमारनन्दी आचार्य कब हुए हैं, कहाँपर उनका निवास था, वे किनके शिष्य और उनके कौन कौन शिष्य हुए हैं। साथ ही यह भी मालूम करने की जरूरत है कि उन्होंने और क्या क्या विशेष कार्य किये हैं । इन सव बातोंके संबंध में अभी हम विशद रूपसे कुछ भी नहीं कह सकते । ये सब बातें गहरे अंधकार में छिपी हुई हैं । हाँ, आचार्य महोदय के अस्तित्व समयकी बाबत इतना जरूर कह सकते हैं कि वे विद्यानंद स्वामीसे पहलेके, अर्थात् विक्रमकी प्रायः ८ वीं शताब्दी से पहले के, विद्वान् हैं । कितने पहले इसका अभीतक कोई निश्चय नहीं । पंचास्तिकायके टीकाकार श्रीजयसेनसूरिने अपनी उक्त टीकाके शुरू में कुंदकुंदाचार्यको श्रीकुमारनंदीका शिष्य प्रकट किया है । यथा: " अथ श्रीकुमारनन्दि सिद्धान्तिदेव शिष्यैः... श्री. मत्कुंदकुंदाचार्यदेवैः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयैः...विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे ...... । " इससे कुमारनंदीका समय विक्रमकी प्रायः दूसरी तीसरी शताब्दी तक पहुँच जाता है । परंतु जयसेनसूरिके इस कथनका समर्थन दूसरे किसी भी प्रमाणसे नहीं होता । स्वयं प्रवचनसार और समयसार नामके प्राभृतों की टीकाओं में भी उन्होंने ऐसा सूचित नहीं किया । उनके भी रचयिता वही कुंदकुंदाचार्य थे । फिर पंचास्ति - कायकी टीकामें ही यह विशेषता क्यों ? कुछ समझ नहीं आता । श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंमें भी, जहाँ अनेक स्थानों पर कुंदकुंदका नाम आया है वहाँ कहीं भी उन्हें कुमारनंदीका शिष्य प्रकट नहीं किया । बल्कि उनका नाम आमतौर पर भद्रबाहु और चंद्रगुप्तके बाद दिया है । और भी किसी ग्रंथ में उक्त प्रकारका उल्लेख नहीं पाया जाता । बल्कि बोधपाहुड़में स्वयं कुन्दकुंदाचार्य के निम्न वाक्योंसे कुछ ऐसा ध्वनित १२१ होता है कि वे भद्रबाहुके शिष्य थे या उनसे कोई निकट सम्बंध रखते थे: - 66 सद्दवियारो हुओ भासामुत्तेसु जं जिणे कहिये । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ ६१ ॥ वारस अंगवियाणं चउदस पुत्रंगविउलविच्छरणं । सुयणाणि मद्दवाहू गमयगुरू भयवओ जयउ ॥ ६२॥ ऐसी हालत में जयसेनसूरिका, कुन्दकुन्द के गुरुविषयमें, उपर्युक्त कथन स्वीकार करने के लिये हृदय तय्यार नहीं होता । आशा है कुमारनंदीके इतिहासविषयमें हमारे विद्वान् भाई कुछ विशेष अनुसंधान करने की कृपा करेंगे । ( क्रमशः । ) संसारमें प्रायः दंभ पुजता है । दंभी मनुष्योंकी बहुधा पृछ होती है और वे आम तौर पर योग्य व्यक्ति समझे जाते हैं । प्रत्युत इसको जो लोग सरल स्वभावी, निष्कपट व्यवहार करनेवाले और सत्यवक्ता होते हैं उनपर प्रायः अनेक प्रकारकी विपत्तियाँ आया करती हैं और उन्हें तरह तरहके कष्ट सहन करने होते हैं । ऐसे लोगों के उदाहरण भी पृथ्वी भरके प्रायः सभी देशोंके इतिहासोंमें पाये जाते हैं । परंतु यह देखकर सच्चे धर्मात्माओं और सत्य प्रेमियोंको अपने कर्तव्य पथसे विचलित नहीं होना चाहिये । उन्हें इस बात से कोई प्रेम नहीं रखना चाहिये कि लोग हमारी पूछ करें अथवा हमारा यशोगान करें और न इस बात की कोई परवाह ही करनी चाहिये कि दूसरे लोग हमारे विषय में क्या कहते हैं । उन्हें आपत्तियोंसे न डरकर और अपनी मान बड़ाईकी दलदल में न फँसकर बराबर सत्य के मैदान में डटे रहना चाहिये । एक दिन आयगा जब उनके सत्यकी परीक्षा हो जायगी और संसार उन्हें ऊँचे आसनपर बिठलायगा । —खंडविचार ।
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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