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________________ अङ्क ४] ऐतिहासिक जैनव्यक्तियाँ। श्रीनंदीकी प्रशंसामें उक्त श्रावकाचारमें ये वाक्य इनसे मालूम होता है कि टीकाकारका नाम दिये हैं 'श्रीनंदिगुरु' है। यदि इस पदमें 'श्री' को " आसी ससमयपरसमयविदू सिरिकुंदकुंदसंताणे। विशेषण मान लिया जाय तो वह 'नंदिगुरु' भव्वयणकुमयवणसिसिरयरो सिरिणंदिणामेण ॥ और 'गुरु' को विशेषण मान लेनेसे 'श्रीनकित्ती जस्सेंदुसुम्भा सयलभुवणमझे जहेत्थं भमित्ता, न्दी' रह जाता है । हमारी रायमें असिल णिचं सा सज्जणाणं हिययवयणसोए णिवासं करेइ ॥ नाम श्रीनन्दी मालम होता है और 'गुरु' जो सिद्धतंबुरासिं सुणयतरणिमासेज लीलावतिण्णो, ,, यह वंशपरंपराकी कोई उपाधि जान पड़ती वण्णेउं को समत्थो सयलगुणगणं सेवियंतो वि लोए॥" ___ इनसे मालूम होता है कि ये 'श्रीनन्दी' ", है । कुछ भी सही, ये श्रनिंदिगुरु श्रीचंद्रके गुरु बड़े ही विद्वान् और एक अच्छे प्रतिष्ठित आ- श्रीनन्दी अथवा नयनंदीके गुरु श्रीनन्दीसे भिन्न चार्य हुए हैं। इनका समय भी विक्रमकी हैं, या उन्हींमेंसे कोई एक हैं, ये बातें विद्वानोंके प्रायः ११ वीं शताब्दी पाया जाता है। बहुत नि प्रायः कामाची पाया जाता है। बरन निर्णय करनेके योग्य हैं। आशा है, हमारे विद्वान संभव है कि ये श्रीनंदी और उक्त श्रीचंद्रके भाई इन आचार्याका विशेष इतिहास खोज गुरु श्रीनंदी दोनों एक ही व्यक्ति हों । इसके निकालनेकी कोशिश करेंगे। सिवाय एक — श्रीनन्दी' प्रायश्चित्तंसमुच्चयके ८ कुमारनन्दी और कुमारसेन । टीकाकार भी हैं। ये 'श्रीनंदि गुरु ' भी कहलाते जैनसमाजमें 'कमारनन्दी' नामके एक हैं। उपर्युल्लिखित सूची में इन्हें सिर्फ 'नन्दिगुरु' ही लिखा है । अस्तु; इस विषयमें, प्राय बहुत बड़े विद्वान् आचार्य हो गये हैं। प्रमाणश्चित्त समुच्चयकी टीकाके प्रशस्तिसंज्ञक अन्तिम परीक्षा, पत्रपरीक्षा, श्लोकवार्तिक और वाक्य इस प्रकार है ! न्यायदीपिका आदि ग्रंथों में उनके वाक्योंका " यः श्रीगुरूपदेशेन प्रायश्चित्तस्य संग्रहः । उल्लेख पाया जाता है। उनके वाक्य तथा दासेन श्रीगुरोर्टब्धो भव्याशयविशुद्धये ॥१॥ चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकैः, ' ' तदुक्तं तस्थषा नूदिता वृत्तिः श्रीनंदिगुरुणा हि सा । कुमारनन्दिभट्टारकैः,' इत्यादिक उल्लेखवाविरुद्धं यदभूदत्र तत्क्षाम्यतु सरस्वती ॥२॥ क्योंके साथ उद्धृत पाये जाते हैं । इन उल्लेखप्रवरगुरुगिरीन्द्रप्रोद्गता वृत्तिरेषा, वाक्योंमें आचार्य महोदयके नामके साथ सकलमलकलंकक्षालिनी सज्जनानां । - 'भट्टारक' शब्दका प्रयोग देखकर किसीको यह सुरसरिदिव शश्वत्सेव्यमाना द्विजेंद्रैः न समझ लेना चाहिये कि वे आजकलके गद्दीप्रभवतु जननूना यावदाचंन्द्रतारम् ॥ ३ ॥" नशीन भट्टारकों जैसे भट्टारक होंगे। ऐसा नहीं १ अर्थात्-श्रीकुंदकुंदकी आम्नायमें ' श्री. • है । उस समय ' भट्टारक' शब्द प्रायः एक नन्दी' नामका आचार्य स्वमत और परमतका जान बहुत बड़े प्रतिष्ठित पूज्य और माननीय विद्वानेवाला तथा भक्तजनरूपी कुमुदवनको प्रफुल्लित कर नके लिये प्रयुक्त होता था । कुमारनन्दीके नेके लिये चंद्रमाके समान हुआ । जिसकी चंद्रमाके नामके साथ यह महत्त्वसचक शब्द लगा रहनेस समान निर्मल कीर्ति सर्व जगत्में भले प्रकार फैलकर सजन पुरुषोंके हृदय, वचन और कानोंमें सदा निवास उनका एक बहुत बड़ा प्रतिष्ठित विद्वान् होना करती थी और जो उत्तम नयरूपी नौकामें बैठकर पाया जाता है। जिसे विद्यानंदस्वामी जैसे एक सिद्धान्तसमुद्रको लीलामासे पार कर गया था उस उद्भट विद्वान् “भट्टारक' शब्दके साथ याद श्रीनन्दीके सकलगुणगणका वर्णन करनेके लिये लोकमें करें वह कितना प्रभावशाली विद्वान् होगा, इसे कौन समर्थ हो सकता है ? पाठक स्वयं समझ सकते हैं। अस्त: कमार
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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