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________________ अङ्क ४] गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज । १२३ टीकाके अन्तमें ग्रंथकर्ता भी समंतभद्रका नाम १२-श्रीशुभचंद्राचार्यविरचित पांडवपुरा‘कृतकृत्यः नियूंढतत्त्वप्रतिज्ञः' इत्यादि विशे- णका एक पद्य इस प्रकार है:षणों के साथ देते हैं, जिससे मालूम होता है कि "समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । इस कारिकाके साथ ग्रन्थकी समाप्ति हो गई, देवागमेन येनात्र व्यक्तो देवागमः कृतः " ॥ १५॥ ग्रंथके अन्तर्गत किसी खास विषयकी नहीं। - इस पद्यके द्वारा ग्रंथकर्ती महाशय, स्वामी विद्यानंदस्वामी, अष्टसहस्रीमें, इस कारिकाके समन्तभद्रका 'भारतभषण' आदि विशेषणोंके द्वारा 'प्रारब्धनिर्वहण'-(प्रारंभ किये हुए साथ स्मरण करते हुए, प्रकट करते हैं कि कार्यकी परिसमाप्ति) आदिको सूचित करते उन्होंने अपने देवागम (शास्त्र) के द्वाराहुए टीकामें लिखते हैं ( गंधहस्तिमहाभाष्य अथवा तत्त्वार्थसूत्रकी " इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेदे शास्त्रे.... टीकाके द्वारा नहीं) जिनेंद्रदेवके आगम (जैना.. अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ"...... गम) को संसारमें व्यक्त कर दिया है। इससे - इन शब्दोंसे भी प्रायः यही ध्वनित होता है देवागमकी स्वतंत्रता और भी स्पष्ट शब्दोंमें कि देवागमशास्त्र जो कि आप्तमीमांसाके शुरूमें उद्घोषित होती है और यह पाया जाता है कि 'देवागम' शब्द होनेसे उसीका दूसरा नाम है, संसारमें समन्तभद्रकी विशेष प्रसिद्धका कारण एक स्वतंत्र ग्रंथ है और उसकी समाप्ति इस भी उनका ‘देवागम' ग्रंथ ही हुआ है। यदि कारिकाके साथ ही हो जाती है। अतः वह किसी यह देवागम कोई पृथक् ग्रंथ न होकर गंधहस्ति दूसरे ग्रंथका आदिम अंश अथवा मंगलाचरण महाभाष्यका ही एक अंश-उसका केवल मालूम नहीं होता। मंगलाचरण-होता तो कोई वजह नहीं थी कि ११-अकलंकदेव अपनी अष्टशतीके आरं उसे महान ग्रंथका कहीं नामोल्लेख न करके भमें लिखते हैं उसके केवल एक छोटेसे अंशका ही उल्लेख "येनाचार्यसमन्तभद्रयतिना तस्मै नमः संततं । कृत्वा वित्रियतेस्तवो भगवता देवागमस्तस्कृतिः ॥२२॥ किया जाता। उस संपूर्ण ग्रंथके द्वारा तो और वसुनन्दी आचार्य अपनी देवागमवृत्तिके मा भी अधिकताके साथ जैनागम व्यक्त हुआ होगा अन्तमें सूचित करते हैं "श्रीसमंतभद्राचार्यस्य... फिर उसका नाम क्यों नहीं ? और क्यों देवागमाख्यायाः कृते सक्षेपभूतं विवरणं कृतं...." आम तौरपर देवामम अथवा आप्तमीमांसाका ही कर्णाटकदेशस्थ हुमचा जि० शिमोगाके नामोल्लेख पाया जाता है ? . जरूर इसमें कुछ रहस्य है और वह कमसे कम देवागमकी स्वतंएक शिलालेखमें निम्न आशयका उल्लेख* मिलता है: त्रताका समर्थक जान पड़ता है। " अकलंकने समंतभद्रके देवागमपर भाष्य लिखा। १३-श्रीविद्यानंदस्वामीने "युक्त्यनुशासन' आप्तमीमांसा ग्रंथको समझाकर बतलानेवाले विद्या. ग्रंथकी टीका लिखते हुए सबसे पहले उसकी नंदिको नमोस्तु।" . . उत्थानिकारूपसे यह वाक्य दिया है-- . इन सब अवतरणोंसे भी प्रायः यही पाया। जाता है कि समन्तभद्रका 'देवागम' उनकी __ "श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसामामन्ययागव्य वच्छेदात् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहतान्त्यतीएक पृथक् कृति अथवा स्वतंत्र ग्रंथ है। . थैकरपरमदेवेन माँ परक्ष्यि किं चिकीर्षवो भवन्त . * देखो जैनाहितैषी भाग ९, अंक ९, पृष्ट ४४५। इति ते पृष्ठा इव प्राहुः । " ३-४
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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