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________________ '११० जनहितैषी [भाग १४ 'देवागम' शास्त्रको, जो कुल ११४ श्लोक- भाष्य है, ३ उसकी श्लोकसंख्या ८४ हजार परिमाण है, इसका मंगलाचरण बतलाया है और देवागम' स्तोत्र उसका आदिम मंगजाता है । देवागम भारतके प्रायः सभी प्रसिद्ध लाचरण है; इन सब बातोंकी उपलब्धि कहाँसे भंडारों में पाया जाता है। उस पर अनेक टीका. होती है-कौनसे प्राचीन आचार्यके किर टिप्पण और भाष्य भी उपलब्ध हैं । अकलंक- इन सब बातोंका पता चलता है ? यह देवकी 'अष्टशती' और विद्यानंद स्वामीकी दूसरी बात है कि आजकलके अच्छे अच्छे 'अष्टसहस्री' उसीके भाष्य और महाभाष्य विद्वान-न सिर्फ जैनविद्वान् बल्कि सतीशचंद्र हैं । जिस ग्रंथका मंगलाचरण ही इतने महत्त्वको विद्याभूषण, भारती जैसे अजैन विद्वान् भीलिये हुए हो वह शेष संपूर्ण ग्रंथ कितना मह- अपने अपने ग्रंथों तथा लेखोंमें इन सब बातोंका त्वशाली होगा और विद्वानोंने उसका कितना उल्लेख करते हुए देखे जाते हैं । परंतु ये अधिक संग्रह किया होगा, इसके बतलानेकी जरू- सब उल्लेख एक दूसरेकी देखादेखी हैं, परीक्षासे रत नहीं है । विज्ञ पाठक सहजहीमें इसका अनु- उनका कोई सम्बन्ध नहीं और न वे जाँच तोल मान कर सकते हैं । परंतु तो भी ऐसे महान ग्रंथका कर लिखे गये हैं । इसी प्रकारके कुछ उल्लेख भारतके किसी भंडारमें अस्तित्व न होना, उसके पिछले भाषापंडितोंके भी पाये जाते है। इन सब शेष अंशोंपर टीका-टिप्पणका मिलना तो दूर आधुनिक उल्लेखोंसे इस विषयका कोई ठीक रहा उनके नामोंकी कहीं चर्चातक न होना, निर्णय नहीं हो सकता। और न हम उन्हें ऐसी यह सब कुछ कम आश्चर्यमें डालनेवाली बातें हालतमें विना किसी हेतुके प्रमाणकोटिमें रख नहीं हैं । और इनपरसे तरह तरहके विकल्प सकते हैं। हमारी रायमें इन सब बातोंके निर्णउत्पन्न होते हैं । यह खयाल पैदा होता है यार्थ--विकल्पोंके समाधानार्थ-अंतरंग खोकि क्या समन्तभद्रने गंधहस्तिमहाभाष्य' जकी बहुत बड़ी जरूरत है । हमें सबसे पहलेनामका कोई ग्रन्थ बनाया ही नहीं और उनकी विदेशोंमें जानेसे भी पहले-अपने घरके साहिआप्तमीमांसा ( देवागम ) एक स्वतंत्र ग्रंथ है ? त्यको गहरा टटोलना होगा; तब कहीं हम यथार्थ यदि बनाया तो क्या वह पूरा न हो सका और निर्णय पर पहुँच सकेंगे। अस्तु । आप्तमीमांसा तक ही बनकर रह गया ? यदि . इस विषयमें हमने आजतक जो कुछ खोज की पूरा हो गया था तो क्या फिर बन कर समाप्त है और उसके द्वारा हमें जो कुछ मालूम हो होते ही किसी कारण विशेषसे वह नष्ट हो गया ? सका है उसे हम अपने पाठकोंके विचारार्थ यदि नष्ट नहीं हुआ तो क्या फिर प्रचलित और यथार्थ निर्णयकी सहायतार्थ नीचे प्रकट सिद्धान्तोंके विरुद्ध उसमें कुछ ऐसी बातें थी करते हैं:जिनके कारण बादके आचार्यों खासकर भट्टार• १-उमास्वातिके तत्त्वार्थपूत्रपर सर्वार्थ- ; कोंको उसे लुप्त करनेकी जरूरत पड़ी अथवा सिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक और श्रुत• बादको उसके नष्ट होजानेका कोई दूसरा ही सागरी नामकी जो टीकाएँ उपलब्ध हैं उनमें, कारण है ? इन सब विकल्पोंको छोड़कर अभी जहाँ तक हमारे देखनेमें आया कहीं भी 'गंधतक हमें यह भी मालूम नहीं हुआ कि १ समन्त- हस्ति महाभाष्य' का नामोल्लेख नहीं है और न भद्रने ‘गंधहस्तिमहाभाष्य' नामका कोई ग्रंथ इसी बातका कोई उल्लेख पाया जाता है कि • बनाया है, २ वह उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका समन्तभद्रने उक्त तत्त्वार्थसूत्रपर कोई भाष्य
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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