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________________ जैनहितैषी [ भाग १४ कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्ज कारिऊण जीवंतो। हमारा विश्वास है . कि खोज करनेसे इस हंतो सीयलनीरे पावं पउरं स संचेदि ॥ २७ ॥ तरहके और भी अनेक प्रमाण मिल सकेंगे अर्थात् उसने कछार, खेत, वसतिका और जिससे द्रविड़ संघ आदिके मुनियोंका मठवासी वाणिज्य आदि करके जीवननिर्वाह करते हुए होना अच्छी तरह सिद्ध हो सकेगा। और शीतलजलमें स्नान करते हुए प्रचुर पापका . यदि यह बात प्रमाणित की जासकी कि पूर्वोक्त संग्रह किया। . तीनों संघोंके आचार्य चैत्यवासी या मठवासी इससे भी यही झलकता है कि द्रविडसंघी थे, तो फिर यह निश्चय हो जायगा कि दिगम्बर साधु वसतियों या मठोंमें रहते होंगे और उन शाखामें भी शिथिलचारी संघोंका प्रारंभ लगभग मठोंको दानमें मिली हुई जमीनसे धन संग्रह उसी समय या उससे कुछ पीछे हो गया होगा करके मठोंका प्रबन्ध आदि करते होंगे। जिस समय कि श्वेताम्बरोंमें चैत्यवासियोंका हरिवंश-पुराणके कर्ता जिनसेन भी द्रविड़- मठवासी पर्वोक्त काष्ठासंघ द्रविड़संघ माथुरसंघ _ हुआ था और तब हमें सबसे पहले मठपति या संघी थे। उन्होंने अपना यह ग्रन्थ बर्द्धमान- अ , आदिके साधुओंको मानना होगा। पुरके 'नन्नराज-वसति' नामक पार्श्व-जिनालयमें रह कर लिखा था । इससे भी मालम होता है जिन मूलसंधियोंने उक्त सब संघोंको ‘जैनाकि इस संघके साध मन्दिरोंमें रहने लगे थे। भास' कहकर अलग कर दिया था, और जो मल वादिराजसरि भी द्रविडसंघके थे । उनके गुरु निर्यन्थाचारके पालनमें जरा भी त्रुटि होना पसन्द मतिसागरकी आज्ञानुसार जो एक दानपत्र लिखा नहीं करते थे, समय बदलने पर उन्हीं मलसंघियोंगया था, उससे भी मालूम होता है कि इस । के चरित्रकी भी मजबूत दीवारें शिथिलाचारने संघके मुनि भूमि आदिका प्रबन्ध करते थे। ताई तोड़ डाली और उसने उनमें भी बड़ी शानके पार्श्वनाथचरितमें वादिराजसरिने अपने गरुको साथ प्रवेश किया जिसके फल हम वर्तमान ‘सिंहपुरैकमुख्य' लिखा है और न्यायविनि- भट्टारकोंके रूपमें देख रहे हैं ! श्चयालंकारमें स्वयं अपनेको भी ‘सिंहपुरेश्वर' मूलसंघके चरित्रकी रक्षा करनेवाले तेरहअर्थात् सिंहपुरका स्वामी बतलाया है। पन्थमें यदि इस समय मुनिमार्ग जारी होता, तो एपिग्राफिका कर्नाटिकाकी दूसरी जिल्ट में जो एक बार फिर भी वह दिन आता, जब इस १४८ वाँ शिलालेख छपा है, उससे मालूम हाता पन्थके साधु भी शिथिलाचारके शिकार हो है कि गंगवंशी सत्यवाक् कोङ्गणिवर्माके सम जाते और मूल जैनधर्मके भक्तोंको उनके विरोयमें एक पुरुषने श्रीकुमारसेन भट्टारकको जिने - धमें एक नये पन्थको जन्म देना पड़ता ! प्रवृन्द्रभवन के लिए एक ग्राम दिया है । यह शिला त्तिपूर्ण संसारकी यही प्रकृति है; निवृत्तिमार्गकेलेख नवीं शताब्दिका लिखा हुआ है । संभवतः पथिकोंके आगे प्रलोभनोंका जाल बिछाये बिना उससे नहीं रहा जाता। ये कुमारसेन भट्टारक द्रविडसंघके या काष्ठासंघके होंगे। फाल्गुन वदी १०॥ सं० १९७६वि० ।। -नाथूराम प्रेमी। १ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग १ किरण
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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