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________________ विधेय नहीं निषिद्ध है । इतनी आवश्यकता है कि उसके बिना उसका जीवन कष्टमय है और उसके लिए मोक्षके मार्ग पर चलना कठिन है । इसी तरह पुरुषके बिना स्त्रीका निर्वाह होना कठिन है । तब स्त्री और पुरुष दोनों के योगसे पूरा मनुष्य बनता है और उसीका नाम विवाह है। विवाह केवल प्रेमकी गांठसे दृढ़ होता है ।इस प्रेमके बलको दृढ़ करने के लिए और उस बलसे उभयपक्षको जो मोक्षावधि महान् लाभ होता है उसकी प्राप्ति के लिए यह प्रेम होना कैसा चाहिए? हमारा मत है कि यह प्रेम एक ही और अखण्ड होना चाहिए; नहीं तो जिस अमूल्य फलकी आशा की जाती है उसे व्यर्थ है। समझना चाहिए । फ्रान्सका प्रसिद्ध विद्वान्, आगस्टकाम्टी भी यही कहता है कि " ऐसा प्रेमइष्ट फल दे इस लिए एक, , अविच्छिन्न और अखण्डमरणके बाद भी अखण्ड — होना चाहिए। यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो फिर स्त्रीपुरुष के बीच मेंदोनोंमें पवित्र प्रेमका सम्बन्ध हो जाने के बाद किसी दूसरे के लिए अवकाश ही कहाँ रहता "है? ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने से गुजरा करते हैं कि बहुतसे स्त्री-पुरुष जिन्हें ऐसे प्रेममय विवाहका अनुभव हो गया है - मरणजन्यवियोगके संकटसे जरा भी नहीं डरते हैं; इतना ही नहीं बल्कि वे दूसरा सम्बन्ध करना अपनी पहली पवित्र गाँठको दूषित करनेके बराबर समझते हैं । ऐसी अवस्थामें पुनर्विवाहके होने में - ' प्रेम ' तो हेतु भूत हो ही नहीं सकता; क्योंकि यह वृत्ति जहाँ एकबार लग जाती है वहाँसे दूसरी जगह के लिए कभी हिलती भी नहीं है। अब यह समझमें सरलता पड़ेगी कि प्रेमसम्पादित विवाह और प्रेमके सिवाय दूसरी वृत्तिसे सम्पादित हुआ पुनर्विवाह, इन दोनोंमें क्या अन्तर है और यह भी समझमें आ जायगा कि यदि विवा Jain Education International २६९ हका सम्बन्ध एक और अखण्ड रक्खा जाय जिससे कि पुनर्विवाहका मौका ही न आने पावे तो अच्छा है, और इसीसे यह भी सिद्ध हो जायगा कि पुनर्विवाह एक निषिद्ध आचार है । जिन देशों में पुनर्विवाहका रिवाज लोकसम्मत है वहाँ, और हिन्दुओं की जिन जिन जातियों में यह जारी है उनमें भी, पुनर्विवाहका लाभ कितने स्त्रीपुरुष लेते हैं और उसे अच्छा समझते हैं, यदि इसकी गणना की जाय तो यह सिद्ध हुए बिना न रहेगा कि मनुष्य जातिकी स्वाभाविक वृत्ति ही प्रेमकी एकता पर दृढ़ है और उसीमें वह सुखका और महत्ताका अन्तिम परिणाम मान रही है । सुप्रसिद्ध बाबू प्रतापचन्द्र रायने अपने एक व्याख्यानमें कहा था कि " मनुष्यकी वृत्ति ही एक प्रेम करनेकी ओर बलवती जान पड़ती है । यदि कोई हिन्दुओंके लिए यह कहे कि इनमें प्रतिष्ठित समझे जानेवाले ब्राह्मणोंका अनुकरण करके वैश्य शूद्रादि वर्ण पुनर्विवाहको बुरा समझने लगे हैं, तो इस बात को स्वीकारते हुए भी यह प्रश्न होता है कि जिन देशों में यह जायज है वहाँ क्यों बहुत से स्त्री-पुरुष इसे पसन्द नहीं करते ? उत्तर यही है कि जनसमाजका झुकाव प्रेमकी एकता की ही ओर है । जैसे संसार के और और कामों में दृढ़ताकी मुख्य आवश्यकता है उसी प्रकार प्रेमसम्बन्ध के व्यवहार में भी है जिसके कि आधार से सारे सुखोंकी मर्यादा बँधती है। यदि यह दृढ़ता न होगी तो मनुष्य पुनर्विवाहके कारण जो बार बार विवाहान्वेषणकी आदत पड़ जायगी उससे किसी एक स्थितिमें सुख न मानकर, सारा जीवन सुख प्राप्त करनेकी एकके बाद एक परीक्षायें करनेमें ही व्यर्थ गवाँकर दुखी हुआ करेगा । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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