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________________ = = शिक्षा। (ले०, श्रीयुत बाबू खूबचन्दजी सोधिया बी. ए, एल. टी. ।) समाजके सामने यह महत्त्वका प्रश्न सदैव किये जायँ, चौथे नैतिकशिक्षा और औद्योगिक ही उपस्थित रहता है कि अपनी संतानको किस विभाग, पाँचवें स्कूलोंको बनवाना, छट्रे इस भाँति शिक्षा दी जाय, उन्हें ऐसे नागरिक किस विभागका ऐसा संगठन करना ताकि समाजका भाँति बनाया जाय जिसमें कि वे अपने जीव- प्रत्येक बच्चा उसे सरलतासे प्राप्त कर सके. नका सर्वोत्तम उपयोग कर सकें । समाजकी इत्यादि सब बातोंका योग्य संस्कार करना और सत्तामें हमेशा अदल बदल हुआ ही करती है। समय पर उसकी आलोचना करते रहना कोई नये नये परिवर्तन होते हैं और प्राचीन विचार- सरल काम नहीं है । जबतक देशके प्रत्येक प्रणाली तथा रीति-रिवाज अपने बलको खोकर व्यक्तिको शिक्षाका महत्त्व भलीभाँति विदित न धीरे धीरे मृतप्राय हो जाते हैं। समाजकी जरू- होगा, जबतक हम इस बातकी जिम्मेदारी अपने रतें भी समय समय बदला करती हैं । प्राचीन सिरपर लेनेके लिए राजी न होंगे-तबतक इस भारतको एक समय संतान-वृद्धि इष्ट थी, इसके विषयमें यथेष्ठ उन्नति होना संभव नहीं है। विपरीत आज हमें संतानवृद्धिको कम करना हमारे अगुओं और अधिकारियोंके चित्तपर यह ही ठीक ऊंचता है । इसी लिए समाजको समय बात भलीभाँति अंकित हो जाना चाहिए कि समयपर इन नवीन बलोंका विचार करके अपनी देशके जीवन-मरणका प्रश्न यही है। संतोषका जरूरतोंके माफिक अपने बालकोंकी शिक्षामें विषय है कि कुछ दिनोंसे सरकारने शिक्षा फर्क करना ही पड़ता है। यथार्थमें अपनी विस्तार करनेका निश्चय कर लिया है; परंतु आवश्यकताओंको पूर्णरूपसे पूरी करनेवाली भारत सरीखे भारी देशके लिए शिक्षाका यथेष्ठ शिक्षाप्रणालीका प्राप्त हो जाना कोई सरल बात बंदोवस्त कर देना कोई सहज बात नहीं है । नहीं है। जब कि इंग्लेंड सरीखे सुसभ्य और इस काममें प्रचुर धन और प्रचुर समयकी आवविचारशील देशमें भी राष्ट्रीय शिक्षा पूरी संतोष- श्यकता है । इसी लिए सरकार हमसे बार बार जनक नहीं है, तब भारत जैसा अवनति प्राप्त कहा करती है कि इस विषयमें हम लोग आगे देश यदि अपनी शिक्षाप्रणालीसे असंतुष्ट हो तो बढ़े । सर्वसाधारणको अब इस विषयमें सावधान कौनसा आश्चर्य है। होकर विचार करना चाहिए। जरा जातीय शिक्षाकी गहनताका भी तो हर्षका विषय है कि थोड़े समयसे हमारा विचार करो । प्रथम तो योग्य शिक्षाका मतलब ध्यान भी इस ओर जाने लगा है । समाचारक्या है यही हल होना है, दूसरे कौन कौनसे पत्रों और सभाओंमें जहाँ तहाँ इस विषयकी विषय पढ़ाये जानेसे यह उद्देश्य सिद्ध होगा, चर्चा होने लगी है । सब लोग एक स्वरसे तीसरे शिक्षापद्धति और शिक्षक किस तरह प्राप्त प्रचलित प्रणालीके दोषोंको दिखला रहे हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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