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________________ MAImmmmmmmmHD मेरी भावना। CHITREETEHETRIOSITIONEETTTTTTTTREETI ©2000eeeeeeeeee3-3-3-ee020000360 गुणीजनोंको देख हृदयमें, मेरे प्रेम उमड़ आवे, बने जहाँतक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे, होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे, गुण-ग्रहणका भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥ कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों वर्षोतक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आजावे । अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे, तो भी न्याय-मार्गसे मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥ होकर सुख में मग्न न फूले, दुखमें कभी न घबरावे, पर्वत-नदी-स्मशान-भयानक, अटवीसे नहिं भय खावे । रहे अडोल-अकम्प निरन्तर, यह मन, दृढतर बन जावे, इष्टवियोग-अनिष्ट योगमें, सहनशीलता दिखलावे॥ ®eeeeeeD0000000000000CCCOce@cceeeeeeeeeeeeeee ICICIIICOTTOTITOUTTCOITOTUOTTUCUTITOOO000€ सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कभी न घबरावे, बैर-पाप-अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे । घरघर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज-जन्म-फल सब पावें ॥ (१०) ईति-भीति व्यापे नहिं जगमें, वृष्टि समय पर हुआ करे, धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजाका किया करे। रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्तिसे जिया करे, परम अर्हिसा धर्म जगतमें, फैल सर्व-हित किया करे ॥ फैले प्रेम परस्पर जगमें, मोह दूर पर रहा करे, अप्रिय कदुक कठोर शब्द नहिं, कोई मुखसे कहा करे । बनकर सब ‘युग-वीर ' हृदयसे देशोन्नति-रत रहा करें, वस्तु-स्वरूप विचार खुशीसे, सब दुख--संकट सहा करें । 200502@eeeeeeee-632eee000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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