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________________ ७३६ जनहितैषी - पूजा करने की इच्छा की और इस हेतु अन्न जलका त्याग कर दिया । तब रावणने इन्द्रका आराधन किया । इन्द्रने प्रसन्न होकर प्रतिमा दे दी । मन्दोदरी प्रतिमाको बहुत समय तक पूजती रही, पीछे उसने उसे समुद्रमें रख दी । वहाँ देव उसे हज़ारों वर्षतक पूजते रहे । विक्रमसंवत् ६८० में कल्याण नगरमें शंकर नामका राजा राज्य करता था । उसके यहाँ एक व्यन्तरने महामारी रोग फैलाया । राजा चिन्तातुर था कि इतनेमें पद्मावतीने उसे स्वप्नमें कहा कि समुद्रमेंसे ऋषभ भगवान्की प्रतिमा लाकर पूजा करो, तो रोग शान्त हो जायगा । राजाने समुद्राधिपति देवका आराधन किया और उसने उक्त प्रतिमा दे दी । प्रतिमा राजाके पीछे पीछे शकट द्वारा आप ही आप चलने लगी । मार्गमें एक जगह राजाने पीछेकी ओर देख दिया तो प्रतिमा ठहर गई, तब राजाने वहीं एक मन्दिर बनवाकर उस प्रतिमाको प्रतिष्ठित कर दिया । प्रजाका रोग शान्त हो गया । पहले यह प्रतिमा अन्तरिक्ष में स्थित या अघर थी, परन्तु उस देशमें म्लेच्छों का प्रवेश होनेसे वह सिंहासन पर जम गई ! इस प्रतिमाको देवलोक से मर्त्यलोकमें आये 1 ११८०९०५ वर्ष हुए !! मिट्टीको आँखमें आँजनेसे मूल मंडपमें केसरकी वर्षा कुछ कुछ रंग जाते हैं, प्रतिमाके सामने आते ही साँपका जहर दूर हो जाता है ! इत्यादि । " सोमधर्मगणिके बनाये हुए ' उपदेशसप्तति' नामक ग्रन्थमें भी कुल्पाकतीर्थके स्थापन होनेका वृतान्त तीर्थ । Jain Education International इस प्रतिमाके स्नानजलसे भीगी हुई अन्धे सूझते हो जाते हैं, चैत्यके होती है, जिससे यात्रियोंके वस्त्र For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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