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________________ ७१४ जैनहितैषी पत्थर, मिट्टी, लकड़ी । इससे अधिक और क्या हमारी दुर्दशा होगी हम दरिद्र बन गये । हमारे पास खानेको अन्न नहीं, पहरनेको वरू नहीं । हमारे करोड़ों भाई इसी दुर्दशाके मारे प्रतिदिन कालके कराल मुँहमें फँसे जा रहे हैं।" अर्थात् यह कह कर सेठजीने भारत वर्षकी दरिद्र अवस्थाको दिखाना चाहा है । इस पर सेठ हीराचन्द नेमचन्दनीने अपनी समालोचनामें सन् १९०९ से सन् १९१३ ईसवीतकका सोने चाँदीका हिसाब प्रकाशित किया है जिससे यह मालूम होता है कि इन पाँच वर्षों में यहाँसे विदेशोंमें जितना सोना चाँदी गया है उससे छः गुण सोना और चार गुण चाँदी इस देशमें आई है। इसके सिवाय और भी दो चार बातें लिखकर सेठजीने यह साबित करना चाहा है कि देश धनसम्पन्न होता जाता है। __ सेठजी ! यह अर्थशास्त्रका प्रश्न है । केवल सोने-चाँदीका हिसाब प्रकाशित कर देनेसे काम नहीं चलेगा । अनेक बातोसे देशके धनकी जाँच होती है। क्या आप सोने-चाँदीको ही धन समझ बैठे हैं ? सोने-चाँदीके सिवाय देशमें जो और सैकड़ों चीजें पैदा होती हैं अथवा विदेशोंसे आती हैं उनका भी तो हिसाब लगाना चाहिए । और जो देशी चीजें विदेशोंको चली जाती हैं उनका भी ख़याल रखना चाहिए । गरज यह कि किसी दशके धनका अंदाजा तब हो सकता है जब उस देशकी पैदावार और उस देशमें बाहरसे आनेवाली चीजोंमें से वे चीजें घटा दी जायँ जो विदेशोंको जाती हैं। सोना-चाँदी तो देशके धनका केवल एक अंश है । क्या अन्न, कपास इत्यादि जमीनमें पैदा होनेवाली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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