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________________ इतिहास-प्रसंग। ७११ दक्षिणकी ओर भेज दिया और आप स्वयं 'चंद्रगुप्त' मुनिक साथ उसी अटवीकी गिरिगुहामें रहने लगे। वहींपर अन्तमें उन्होंने समाधिपूर्वक अपना देह त्याग किया। " किन्तु वह 'महाऽटवी' या 'गिरिगुहा' कौनसे देश या नगरमें थी, इसका उक्त चरित्रमें कहीं कुछ पता नहीं है । हाँ, इतना पता जरूर है कि वह, पर्वत और गुफायुक्त अटवी ‘उज्जयिनी' में नहीं थी। उज्जयिनीसे आगे चलकर दूसरे देशोंमें विहार करते हुए ही वह कहीं पर उन्हें मिली थी । परन्तु श्रीमल्लिभूषणके शिष्य नेमिदत्त, अपने — आराधनाकथाकोश' में, भद्रबाहुका समाधिस्थान उज्जयिनी नगरीमें एक वटवृक्षके निकट बतलाते हैं और यहाँतक लिखते हैं कि श्रीभद्रबाहुस्वामी स्वयं उज्जयिनीसे गये ही नहीं, बल्कि उन्होंने मुनियोंसे अपनी अल्पायुका कारण बतलाकर उन्हें अपने प्रधान शिष्य विशाखाचार्यके साथ, चरित्ररक्षाके लिए, दक्षिणदेशको भेज दिया और आप वहीं उज्जयिनीमें ठहरे रहे । मुनियोंके चले जानेके बाद उनके वियोगसे उज्जयिनीका राजा चंद्रगुप्त भी भद्रबाहुको नमस्कार करके मुनि हो गया । यथाः "अत्र द्वादशवर्षाणां भाविदुर्भिक्षकं ध्रुवम् । मया त्वल्पायुषात्रैव स्थीयते भो तपस्विनः ॥ १९ ॥ यूयं दक्षिणदेशं तु संगच्छन्तु कृतोद्यमाः। इत्युक्त्वा दशपूर्वहं विशाखार्यमुनीश्वरम् ॥ २०॥ स्वशिष्यं संघसंयुक्तं सुधीः संज्ञानलोचनम् । प्रेषयामास चारित्ररक्षार्थ दक्षिणापथम् ॥ २१ ॥ तदा ते मुनयः संतो गत्वा तत्र सुखं स्थिताः। गुरोवाक्यानुगाः शिष्याः संभवंति सुखाश्रिताः ॥२२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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