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________________ इतिहास प्रसंग। "श्रीमद्देवगिरी मनोहरपुरे श्रीपार्श्वनाथालये, वर्षेऽब्धीषुरसैकमेय इह वै श्रीविक्रमाधीशतुः। सप्तम्यां गुरुवासरे श्रवणभे वैशाख मासे सिते, पार्ध्वाधीशपुराणमुत्तममिदं पर्याप्तमेवोत्तरम् ॥ ८५॥” । इस पुराणकी श्लोकसंख्या ग्रंथके अन्तिम पद्य ( नं० ८७ ) में २७१० प्रगट की गई है । कविने यह ग्रंथ श्रीगुणभद्राचार्यके 'उत्तरपुराण' को देखकर लिखा है । ऐसा इस ग्रंथकी आदिमें कविकी प्रतिज्ञासे मालूम होता है । ग्रंथमें, ग्रंथकर्ताने अपनी गुरुपरम्परा काष्ठासंघके प्रधान गच्छ “ नन्दीतट ' के मुकुटमाण श्रीरामसेनाचार्यसे प्रारंभ की है, अन्तमें अपनेको 'श्रीभूषणसूरि ' का शिप्य बतलाया है और उनके नामका प्रायः प्रत्येक सर्गके अन्तिमकाव्योंमें स्मरण किया है। रामसेनके अन्वय (वंशपरम्परा) में धर्मसेन नामके आचार्य हुए। फिर उनके पट्टपर क्रमशः विमलसेन, विशालकीर्ति, विश्वसेन, विद्याभूषण और श्रीभूपणका प्रतिष्ठित होना लिखा है। सकलकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्तिका समय । पार्श्वनाथपुराणकी जिस प्रतिपरसे यह नोट लिखा जाता है वह संवत् १८२० की लिखी हुई है और उसे भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिके पट्टपर प्रतिष्ठित होनेवाले सकलकीर्ति नामके भट्टारकने अपने पढ़नेके लिये सुरम्यपुरमें लिखाया है। इससे सकलकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारकोंका समय भी मालूम हो जाता है । जैनसमाजमें सकलकीर्तिके नामसे सैंकड़ों ग्रंथ प्रचलित हैं। परन्तु इस नामके अनेक आचार्य और भट्टारक होगये हैं। कौन ग्रंथ कौनसे सकलकीर्तिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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