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________________ ६२६ में लिखा है कि वेद ईश्वरसंभूत है। किन्तु जब वे वेदको मानते ही नहीं हैं तब उसकी बात क्यों मानने चले ?: इस विषयको लेकर जो वादानुवाद हो सकता है, उसका पाठक सहज ही अनुमान कर सकते हैं । उसको सविस्तर लिखनेकी आवश्यकता भी नहीं है । जो ईश्वरको ही नहीं मानते, वे वेदको ईश्वरप्रणीत कहकर स्वीकार नहीं कर सकते। ३. वेदकी निज शक्तिकी अभिव्यक्तिके द्वारा ही वेदकी प्रमाणता सिद्ध होती है। सांख्यप्रवचनकारने यही उत्तर दिया है । इस सम्बन्धमें केवल इतना ही वक्तव्य है कि यदि वेदमें इस प्रकारकी शक्ति हो तो वेद अवश्य ही मान्य है। किन्तु वह शक्ति हैं या नहीं, यह एक स्वतंत्र विचार आवश्यक हो पड़ता है । अनेक लोग कहेंगे कि हम वेदमें कोई ऐसी शक्ति नहीं देखते । वेदका अगौरव-अमानता हिन्दू शास्त्रोंमें भी मौजूद है । मुण्डकोपनिषत्के आरंभमें 'अपरा' और 'परा' इस तरह दो विद्यायें बतलाई गई हैं । इनमें वेदादिको अपरा और अक्षयप्राप्ति करानेवाली ब्रह्मविद्याको परा कहा है, अर्थात् वेदविद्यासे इस पराविद्याको श्रेष्ठतर बतलाया है। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ श्लोक ४२-४४ में वेदपरायणोंकी निन्दा की गई है। भागवतपुराण (४।२९,४२ )में नारद कहते हैं कि परमेश्वर जिस पर अनुग्रह करते हैं वह वेद त्याग कर देता है । कठोपनिषत्में कहा है-"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया बहुना श्रुतेन ।' अर्थात् वेदके द्वारा आत्मा लभ्य नहीं हो सकता। शास्त्रानुसन्धान करनेसे इस प्रकारके और भी वचन मिल सकते हैं । पाठक देखेंगे कि 'वेदको क्यों मानें ? ' इस प्रश्नका हमने कोई उत्तर नहीं दिया । देनेकी हमारी इच्छा भी नहीं है । जो समर्थ हैं वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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