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________________ ६२३ नहीं मानते थे । वेद पौरुषेय नहीं है और अपोरुषेय भी नहीं है, यह वचन केवल व्यंगमात्र है । इस बात के कहने में सूत्रकारका यह अभिप्राय जान पड़ता है कि - "देखो, यदि तुम वेदको सर्वज्ञानयुक्त कहना चाहते हो, तो वेद या तो पौरुषेय होगा या अपौरुषेय । इनमेंसे इस बातका प्रमाण तो वेद में ही मौजूद है कि वेद अपौरुषेय नहीं है । तब यदि यह पौरुषेय होगा, तो यह भी कहना होगा कि यह मनुष्यकृत है। क्योंकि यह बात सिद्ध की जा चुकी है कि सर्वज्ञपुरुष कोई नहीं है ।" जब वेद पौरुषेय नहीं है और अपौरुषेय भी नहीं है, तब वेद माननीय कैसे हो सकता है ? सांख्यकारने इस प्रश्नका उत्तर देना आवश्यक समझा था । यदि आजकलंकी बात देखी जाय, तो भारतवर्ष में इससे अधिक गुरुतर प्रश्न और कोई भी नहीं है। एक बार और भी यह प्रश्न उठा था । जिस समय धर्मशास्त्रोंके अत्याचार से पीडित होकर भारतवर्ष त्राहि त्राहि करके पुकार रहा था, तब शाक्यसिंह बुद्धदेवने कहा था - " तुम वेदको क्यों मानते हो ? वेदको मत मानो । " यह सुनकर वेदवित् वेदभक्त दार्शनिक मण्डलीने इस प्रश्नका उत्तर दिया था। जैमिनि, वादरायण, गौतम, कणाद, कपिल, जिनकी जैसी धारणा थी उन्होंने वैसा ही उत्तर दिया था। अतएव प्राचीन दर्शनशास्त्रों में उक्त प्रश्नका उत्तर रहनेसे दो बातें जानी जाती हैं । एक तो यह कि आजकलकी अँगरेजी शिक्षाके दोष से ही लोग वेदोंकी अलङ्घनीयता के विषय में सन्देह करने लगे हों, सो बात नहीं है । यह सन्देह बहुत पुराने समय से चला आ रहा है। प्राचीन दर्शनिकोंके बाद शंकराचार्य, माधवाचार्य, सायनाचार्य आदि नवीन दार्शनिक भी इस प्रश्नका उत्तर देने के लिए चिन्तित हुए थे। दूसरी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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