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________________ वनस्पति कायके जीवोंसे भी आगे बढ़ा देते हैं । इस बातमें उनके विचार बड़े अनौखे हैं और कमसे कम भारतवर्षके कोई दार्शनिक उनसे सहमत नहीं । जैन पृथ्वी, अप, वायु और तेज कायको जीव. सहित अथवा जीवोंके पिंड समझते हैं, जिनको प्रथम 'काय' और जीव कह सकते हैं। जब इन प्रथम काय, पृथ्वीकाय अपूकाय इत्यादिमेंसे जीव निकल जाते हैं, केवल उसी समय वे जीवरहित पुद्गल होते हैं । तदनुसार शीत जलमें जीव समझे जाते हैं अतः उसे साधु काममें नही लाते । इस प्रकार जैनोंकी दृष्टिसे हमको जीवरहित पुद्गल सीमाबद्ध समझने चाहिए। क्योंकि अधिकांश पदार्थ कमसे कम कुछ समयके लिए जीवसहित गिने जा सकते हैं । परंतु यहीं पर अंत नहीं है । अभी एक प्रकारके जीव और हैं जो सबसे नीची श्रेणीके हैं और हमारे दृष्टिगोचर नहीं हैं । ये जीव निगोद कहलाते हैं । इस शब्दका अर्थ समझानेके लिए मैं बतलाता हूँ कि जैनोंके अनुसार वनस्पतिकाय दृष्टिगोचर और अदृष्टिगोचर दो प्रकारका होता है; निगोद दूसरी प्रकारका है । कुछ वनस्पतियोंमें तो एक ही जीव होता है और कुछमें, जिनकी संख्या अधिक है, बहुतसे जीव होते हैं जो मिलकर एक बस्ती या भंडार होते हैं। निगोद ऐसी ही वनस्पति है। निगोदमें छोटेसे छोटे गोले होते हैं जिनमें असंख्य कोठरियाँ होती हैं और प्रत्येक कोठरीमें अनंत जीव होते हैं जिनके जीवनके सब काम एक साथ होते हैं । इन गोलोंसे सब आकाश अक्षर प्रति अक्षर ठसाठस भरा है । निगोदमेंसे कुछ जीव कभी कभी निकल जाते हैं और मोक्ष गये हुए आत्माओंके मुक्त होनेसे जो स्थान खाली हो जाते हैं उनके भरनेके लिए आत्माओंकी श्रेणीमें चढ जाते हैं। क्योंकि जीवोंकी एक श्रेणी नीचेसे लेकर त्रस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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