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________________ ५९२ साधन विद्याकी हद्द हो चुकी !" परन्तु राजाके मुँहसे एक भी प्रशंसासूचक शब्द न निकला । बात यह थी कि उस समय उसकी दृष्टि नटकन्याके सुगठित शरीरमें उलझ रही थी और उसके साथ मानसिक व्यभिचार सेवनमें रत थी । इसलिए उसने देखते हुए भी कुछ न देखा । वह बोला-"अच्छा इस अन्तिम प्रयोगको एक बार और भी करके दिखलाओ।" आज्ञा पाते ही एलाकुमार फिरसे बाँस पर चढ़ गया और नटकन्या अपने मनोमोहनकी थकावट मिटाने और उत्साह बढ़ानेके लिए बाँसके समीप खड़ी होकर उत्तेजक गीत गाने लगी और साथ ही उत्साहप्रेरक ढोलको ध्वनित करने लगी। इसका फल राजाके चित्त पर और भी विलक्षण हुआ । रूपके मोहके साथ कण्ठका मोह और मिल गया। राजा अपने पदको भूल गया और केवल इसी बातके विचारमें तन्मय हो गया कि इस सुन्दरीको कैसे प्राप्त करूँ। इसी बीचमें एलापुत्रका दूसरी बारका खेल पूरा हो गया । वह नीचे उतर कर महाराजके सामने मस्तक झुकाकर खड़ा हो गया। राजाने इस बार भी कुछ प्रसन्नता प्रकट न की और तीसरी बार खेल करनेकी आज्ञा दी। ___ अबकी बार दर्शकोंको यह समझनमें कुछ भी बाकी न रह गया कि राजाकी आन्तरिक इच्छा क्या है । उनके हृदयमें राजाके प्रति तिरस्कारकी वर्षा हो रही थी, परन्तु स्वेच्छाचारके जन्मसिद्ध अधिकारको लेकर पृथ्वीमें अवतार लेनेवाले राजाओंके मार्गमें कंटक बिछानेका साहस किसे हो सकता है ? दूसरोंके परिश्रमसे लक्ष्मीवान् बनना, उस लक्ष्मीसे प्रत्येक इन्द्रियकी षोडशोपचार पूजा करना, अपने प्रबल लोभ और मानको पुष्ट करनेके लिए सैकड़ों-हजारों-लाखों मनुष्योंकी बलि लेना और ऐसी बलिको 'देशभक्ति,' 'राजभक्ति ' ठहराना, इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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