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________________ १०४ उत्पन्न होगी-किन्तु यह याद रखना चाहिए कि जो संमारके समस्त प्रवृत्ति-संघातोंके बीच रहकर यथेच्छ मनुष्य बन जाते हैं, उन्हें गृहस्थ होनेके योग्य मनुष्यत्व प्राप्त नहीं हो सकता-जमींदार बनाया जा सकता है, व्यवसायी बनाया जा सकता है परन्तु मनुष्य बनना बहुत ही कठिन है। हमारे देशर्म एक समय गृहधर्मका आदर्श बहुत ही उँचा था. इसीलिए समाजमें तीनों वर्गोंको संसार में प्रवेश करनेके पहले ब्रह्मचर्यपालनके द्वारा आपको तैयार करनेका उपदेश और व्यवस्था थी। यह आदर्श बहुत समयसे नीचे गिर गया है और उसके स्थानपर हमने अब तक और कोई महत् आदर्श ग्रहण नहीं किया, इसीसे हम आज क्लर्क, सरिश्तेदार, दारोगा, डिपुटी मजिस्ट्रेट बनकर ही सन्तुष्ट हैं. इसमे अधिक बननेको यद्यपि हम बुरा नहीं समझते तथापि बहुत समझते हैं । _ किन्तु इससे बहुत अधिक भी बहुत नहीं है । हम यह बात केवल हिन्दुओंकी ओरसे नहीं कहते हैं-नहीं, किसी देश और किसी देश समाजमें भी यह बहुत नहीं है। दूसरे देशोंमें ठीक इसी प्रकार की शिक्षाप्रणाली प्रचलित नहीं की गई और वहां के लोग युद्धोंमें लडने हैं, वाणिज्य करते हैं, टेलीग्राफके तार खटग्बटाते हैं, रेलगाडीके एञ्जिन चलाते हैं ----यह देखकर हम भूले हैं;-और यह भूल ऐनी है कि किसी सभामें एकाध प्रबन्धकी आलोचना करनेसे मिट जायगी ऐसी आशा नहीं की जा सकती। इसलिए आशङ्का होती है कि आज हम 'जातीय' शिक्षापरिपत्की रचना करनेके समय अपने देश और अपने इतिहासको छोड़कर जहाँ तहाँ उदाहरण खोजनेके लिए घम फिरकर कहीं और भी एक संचेमें ढला हुआ कलका स्कुल न खोल बैठे । हम प्रकृतिका विश्वास नहीं करते, मनुष्य के प्रति भरोसा नहीं रखते, इसलिए कलके बिना हमारी गति नहीं है। हमने मनमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522792
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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