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________________ ८ रसवाणिज्य, ९ केशवाणिज्य, १० विषवाणिज्य, ११ यंत्रपीडा, १२ निलाछन, १३ असतीपोषण, १४ दवदान और १५ सरःशोष । इसके पश्चात् ( श्लोक नं ११३ तक ) इन १४ कर्मादानोंका पृथक् पृथक् स्वरूप वर्णन किया है । जिसका कुछ नमूना इस प्रकार है: " अंगारभ्राष्टकरणांकुंभायःस्वर्णकारिता। ठठारत्वेष्टकापाकावितीचंगारजीविका ॥ १०१॥ नवनीतवसाद्रक्षौद्रमद्यप्रभृतिविक्रयः। द्विपाच्चतुष्पादविक्रयो वाणिज्यं रसकेशयोः॥१०८ ॥ नासावधोकनमुष्कच्छेदनं पृष्टगालनं। कर्णकम्पलविच्छेदो नि छनमुदीरितं ॥ ११ ॥ सारिकाशुकमार्जाराश्चकुर्कटकलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः ॥ ११२॥ ( योगशास्त्र) इन १५ कर्मोका निषेध किया गया है, प्रायः इन सभी कर्मोक निषेध उमास्वामिश्रावकाचारमें भी श्लोक नं. ४०३ से ४१२ तक पाया जाता है । परन्तु १४ कर्मादान त्याज्य हैं; वे कौन कौनसे हैं और उनका पृथक् पृथक् स्वरूप क्या है; इत्यादि वर्णन कुछ • भी नहीं मिलता । योगशास्त्रके उपर्युक्त चारों श्लोकोंसे मिलते जुलते उमास्वामिश्रावकाचारमें निम्नलिखित श्लोक पाये जाते हैं; जिनसे मालूम हो सकता है कि इन पद्योंमें कितना और किस प्रकारका परिवर्तन किया गया है: - "अंगारभ्राष्टकरणमयःस्वर्णादिकारिता। इष्टकापाचनं चेति त्यक्तव्यं मुक्तिकांक्षिभिः ॥ ४०४॥ नवांतवसामद्यमध्वादीनां च विक्रयः।। द्विपाश्चतुष्पाचविक्रेयो न हिताय मतः क्वचित् ॥४०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522792
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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