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________________ Vol. III-1997-2002 जैन एवं हिन्दू धर्म में ..... ३१९ वैसा ही मिलता है । जैन दर्शन ने यही दृष्टि प्रदान की कि अच्छे कर्म करने से सुख व बुरे कर्म करने से दुःख मिलता है। अतः व्यक्ति को मन में अच्छी भावना रखनी चाहिये, वाणी से अच्छे वचन बोलने चाहिये और शरीर से अच्छे कर्म करने चाहिये । आत्मा ऐसा करने के लिये स्वतन्त्र एवं समर्थ है। आत्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता एवं विकर्ता है । सुमार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर चलने वाला स्वयं का शत्रु है ।, यथा अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पटुयं सुपट्टिओ ॥ जैन - कर्म - सिद्धान्त के प्रतिपादन से यह स्पष्ट हुआ है कि आत्मा ही अच्छे बुरे कर्मों का केन्द्र है। आत्मा मूलतः अनन्त शक्तियों का केन्द्र है। ज्ञान और चैतन्य उसके प्रमुख गुण है, किन्तु कर्मों के आवरण से उसका शुद्ध स्वरूप छिप जाता है। जैन आचार संहिता प्रतिपादित करती है कि व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य आत्मा के इसी शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना होना चाहिये, तब यही आत्मा परमात्मा हो जाता है । आत्मा को परमात्मा में प्रकट करने की शक्ति जैन दर्शन ने मनुष्य में मानी है। क्योंकि मनुष्य में इच्छा, संकल्प और विचार शक्ति है, इसलिये वह स्वतन्त्र क्रिया कर सकता है। अतः सांसारिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति इन दोनों का मुख्य सूत्रधार मनुष्य ही है । जैन दृष्टि से यद्यपि सारी आत्मायें समान हैं, सब में परमात्मा बनने के गुण विद्यमान हैं, किन्तु उन गुणों की प्राप्ति मनुष्य जीवन में ही संभव है, क्योंकि सदाचरण एवं संयम का जीवन मनुष्य भव में ही हो सकता है। इस प्रकार जैन आचार संहिता ने मानव को जो प्रतिष्ठा दी है, वह अनुपम है" । मनुष्य की इसी श्रेष्ठता के कारण जैन धर्म में दैवीय शक्ति वाले ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं रहा । जैन दृष्टि में ऐसा कोई व्यक्ति ईश्वर हो ही नहीं सकता, जिसमें संसार को बनाने या नष्ट करने की कोई इच्छा शेष हो । यह किसी भी दैवीय शक्ति के सामर्थ्य के बाहर की वस्तु है कि वह किसी भी द्रव्य को बदल सके तथा किसी व्यक्ति को सुख-दुःख दे सके। क्योंकि हर गुण स्वतन्त्र और गुणात्मक है । प्रकृति स्वयं अपने नियमों से संचालित है। व्यक्ति को सुख दुःख उसके कर्म और पुरुषार्थ के अनुसार मिलते हैं । अतः जैन आचार संहिता में ईश्वर का वह अस्तित्व नहीं है जो मुस्लिम धर्म में मुहम्मद साहब का तथा ईसाई धर्म में ईसा मसीह का है । हिन्दू धर्म का सर्वशक्तिमान ईश्वर भी जैन धर्म में स्वीकृत नहीं है, क्योंकि इससे मनुष्य की स्वतन्त्रता और पुरुषार्थं बाधित होते हैं" । विश्व संरचना में ईश्वर की भूमिका का निषेध जैनों की तरह सांख्यदर्शन में भी किया गया है । कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर मिश्र जैसे मीमांसक भी ईश्वर को निर्माता के रूप में स्वीकार नहीं करते, क्योंकि वे विश्व को अनादि मानते हैं । जैन एवं मीमांसकों ने निर्माता ईश्वर के अस्तित्व के निषेध के समान तर्कों का उपयोग किया है। वैशेषिक दर्शन के प्रारंभिक ग्रन्थों में भी ईश्वर स्वीकृति नहीं है। पतंजलि के योगसूत्र एवं गौतम के न्यायसूत्र में भी ईश्वर को एक योगी, आप्त और सर्वज्ञ के रूप में देखा गया है । जैन दर्शन में भी मुक्त आत्मा को परमात्मा, आप्त, सर्वज्ञ आदि कहा गया है । अतः सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर के सम्बन्ध में जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में प्रायः समान चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। जैन धर्म में यद्यपि ईश्वर जैसी उस सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है जो संसार को बनाने अथवा नष्ट करने में कारण है, तथापि जैन आचार संहिता आत्मा के उस शुद्ध स्वरूप के अस्तित्व को स्वीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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