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Vol. III-1997-2002
जैन एवं हिन्दू धर्म में......
प्रायः सभी ने मुक्ति की प्राप्ति के लिए अज्ञान को दूर कर आत्म-ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक माना है। और मुक्ति प्राप्ति के बाद जीवन-मरण के चक्र और दुःखों का अन्त स्वीकार किया है ।
भारतीय दर्शनों में मुक्ति के सम्बन्ध में एक समानता यह भी मिलती है कि प्रायः सभी ने जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति इन दो को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। गीता और वेदान्त की परम्परा में राग-द्वेष और आसक्ति की पूर्ण रूप से समाप्ति पर जीवन मुक्ति और ऐसे साधक के शरीर छूट जाने पर विदेह मुक्ति की प्राप्ति माना गया है। बौद्ध दर्शन में तृष्णा के क्षय के बाद सोपाधिशेष निर्वाण धातु की प्राप्ति होती है और शरीर छूटने के बाद अनुपाधिशेष निर्वाण धातु की । जैन दर्शन में राग-द्वेष से मुक्ति को भाव मोक्ष और शरीर छूटने के बाद की मुक्ति को द्रव्य मोक्ष कहा गया है। गीता में जीवनमुक्त अवस्था के साधक को "स्थितप्रज्ञ" कहा गया है और वेदान्त में उसे "जीवात्मा" नाम दिया गया है। बौद्ध दर्शन में जीवन मुक्त साधक "अर्हत" केवली, उपशान्त आदि नामों से जाना जाता है । जैन दर्शन में ऐसे जीवन मुक्त साधक को "अर्हल", वीतराग, केवली आदि कहा गया है । ये सभी साधक राग-द्वेष से रहित, समता धारक एवं जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने वाले कहे गये है। इस अवस्था से आगे की मुक्त आत्माएँ, जो सर्वथा कर्मों से मुक्त हो गयी है और जिन्होंने अपने शरीर आदि सभी सांसारिक सुख त्याग दिये है, गीता में "परमात्मा", वेदान्त में "ब्रह्म", बौद्ध दर्शन में "बुद्ध" "निर्वाण" एवं जैन दर्शन में "सिद्ध", "परमात्मा" आदि नामों से जानी जाती है। ऐसी स्थिति में साधक और साध्य का अभेद हो जाता है। इस अवस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं रह जाता । इस मुक्त अवस्था को प्राप्त आत्मा अन्य साधकों के लिए उपास्य, ईश्वर परमात्मा बन जाता है। जैन ग्रन्थ समाधिशतक में मुक्तात्मा को शुद्ध स्वतन्त्र, परिपूर्ण, परमेश्वर, अविनश्वर सर्वोच्च, सर्वोत्तम, परमविशुद्ध और निरंजन कहा गया है । सामान्यतया यही और इसी तरह के पद ईश्वर या परमेश्वर के साथ व्यवहत किये जाते हैं। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में भले ही भारतीय मनीषा ने प्राकृतिक शक्तियों, राजा, वीर पुरुष, धर्मगुरु आदि में अपने से अधिक गुणों और शक्ति का अनुभव कर उन्हें ईश्वर की संज्ञा प्रदान की थी, किन्तु बाद में समाधि और ज्ञान को महत्त्व देने वाले चिन्तकों ने आत्मा के पूर्णरूप से विकसित स्वरूप को ही मोक्ष एवं परमात्मा, देवाधिदेव, ब्रह्म आदि नाम दिये हैं ।
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परमात्मा का महत्त्व :
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हिन्दू धर्म के विभिन्न विचारकों ने ईश्वर की आवश्यकता के अनेक कारण प्रतिपादित किये हैं । वैदिक दर्शन में परमेश्वर वेदरूपी वृक्ष का फल है । उपनिषदों में ईश्वर समस्त ब्रह्माण्ड के संचालक के रूप में स्वीकृत हैं । जगत् के प्राण-स्वरूप उसी को ब्रह्म कहा गया है। पूर्वमीमांसा में शब्दमात्र ही देवता है । अतः वहाँ वैदिक मन्त्रों को ही देवत्व प्राप्त है सांख्य एवं योग दर्शनों में कर्मफल ही प्रधान है । अतः वहाँ ईश्वर उपास्य के रूप में तो स्वीकृत है, कर्म फल प्रदाता के रूप में नहीं। न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शनों में ईश्वर की आवश्यकता संसार के व्यवस्थापक एवं कर्म-नियामक के रूप से स्वीकार की गयी है। गीता में ईश्वर के दोनों रूप स्वीकृत हैं। वह कर्म-नियम के ऊपर है और भक्तों के लिए कारुणिक है॰ । किन्तु वहाँ यह भी कहा गया है कि कर्म और उनके प्रतिफल के संयोग का कर्ता ईश्वर नहीं है। कर्मों की व्यवस्था स्वयमेव होती रहती है" जैन दर्शन कर्म नियन्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करता । क्योंकि इससे कर्म-नियम और ईश्वर दोनों का महत्त्व कम हो जाता है । अतः जैन दर्शन में आत्मा को कर्मों का कर्ता और भोक्ता माना है तथा वही आत्मा कर्मों से मुक्त होकर परमात्मा हो जाती है । अतः कर्म-नियामक और ईश्वर दोनों ही एक आत्मा की दो अवस्थाएँ हैं१२ । गीता में नैतिक आदर्श
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