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________________ २५२ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र.... Nirgrantha रचित प्रस्तुत शास्त्र पर उन्हीं की स्वोपज्ञ कृति है । चूंकि हमारा मुख्य विवेच्य ग्रन्थ का कर्ता और उसका समय नहीं है इसलिये हम इन विवादों में न पड़कर अपने मूलविवेच्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विवेचन करेंगे । दार्शनिक चिन्तनधारा में प्रमाण को एक अत्यन्त विचारगर्थ्य विषय माना गया है । इसीलिए सभी दार्शनिक निकायों में प्रमाण को लेकर विस्तृत विचार हुआ है । 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' जिसके द्वारा प्रमा (अज्ञाननिवृत्ति) हो वह प्रमाण है । 'प्रमाण' शब्द की इस व्युत्पत्ति के अनुसार ही न्यायदर्शन के भाष्यकार वात्स्यायन ने 'ज्ञानोपलब्धि के साधनों' को प्रमाण कहा है । इसकी व्याख्या करनेवालों में मतभेद है । न्यायवार्तिककार उद्योतकर अर्थ की उपलब्धि में सन्निकर्ष को साधकतम मानकर उसे ही प्रमाण मानते हैं । उनके अनुसार अर्थ का ज्ञान कराने में सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष है । क्योंकि चक्षु का घट के साथ संयोग होने पर ही घट का ज्ञान होता है, जिस अर्थ का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान नहीं होता । नैयायिक संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव इन छ: प्रकार के सन्निकर्षों के आधार पर प्रमाण की व्याख्या करते हैं । इसके अतिरिक्त नैयायिक कारक-साकल्य को भी प्रमा का कारण मानते हैं । जो साधकतम होता है वह करण है और अर्थ का व्यभिचार रहित ज्ञान कराने में जो करण है, वह प्रमाण है । उनकी मान्यता है कि ज्ञान किसी एक कारक से नहीं होता अपितु समग्र कारकों के होने पर नियम से होता है । इसलिये कारक-साकल्य ही ज्ञान की उत्पत्ति में करण है अतः वही प्रमाण है । सांख्य अर्थ की प्रमिति में इन्द्रिय-वृत्ति को साधकतम मानते हुए उसे ही प्रमाण मानता है । इन्द्रियाँ जब विषय का आकार परिणमन करती हैं तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द आदि का ज्ञान कराती हैं । इन्द्रियों की विषयाकार परिणीत वृत्ति ही प्रमाण है । मीमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते हैं-तत्र व्यापाराच्च प्रमाणता* । उनका मानना है कि ज्ञातृव्यापार के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता । कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमें क्रिया होती है । इसलिए क्रिया से युक्त द्रव्य को कारक कहा गया है, जैसे रसोई पकाने के लिए चावल, पानी, आग आदि अनेक कारक जो पहले से तैयार होते हैं, उनके मेल से रसोई तैयार होती है, उसी प्रकार आत्मा, मन, इन्द्रिय और पदार्थ इन चारों का मेल होने पर ज्ञाता का व्यापार होता है जो पदार्थ के ज्ञान में साधकतम कारण है । अतः ज्ञातव्यापार ही प्रमाण है। बौद्ध प्रमाण को अज्ञात अर्थ या अनधिगत विषय का ज्ञापक अथवा प्रकाशक मानते हैं । बौद्धों के अनुसार प्रमाण का लक्षण है-'अर्थसारूप्य'-अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् (न्यायबिन्दु-१.२०) । वे मानते हैं कि अर्थ के साथ ज्ञान का जो सादृश्य होता है, वही प्रमाण है । उनके सारूप्य लक्षण प्रमाण का तात्पर्य है कि बुद्धि प्रमाण है, इन्द्रियाँ नहीं, क्योंकि हेय या उपादेय वस्तु के त्याग या ग्रहण करने का अतिशय साधन ज्ञान ही है अतः वही प्रमाण है। इस प्रकार बौद्ध ज्ञान को प्रमाण मानते हैं किन्तु उनके अनुसार ज्ञान के दो भेद हैं - निर्विकल्पक और सविकल्पक। बौद्ध मत में प्रत्यक्षरूप ज्ञान निर्विकल्पक होता है और अनुमानरूप ज्ञान सविकल्पक । ये दो ही प्रमाण बौद्ध मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार विषय भी दो प्रकार का होता है - (१) स्वलक्षणरूप एवं (२) सामान्यलक्षणरूप । स्वलक्षण का अर्थ है वस्तु का स्वरूप जो शब्द आदि के बिना ही ग्रहण किया जाता है । सामान्यलक्षण का अर्थ है - अनेक वस्तुओं के साथ गृहीत वस्तु का सामान्य रूप जिसमें शब्द का प्रयोग होता है । स्वलक्षण, प्रत्यक्ष का विषय है और सामान्यलक्षण अनुमान का । जो कल्पना से रहित अभ्रान्त किंवा निर्धान्त ज्ञान होता है, उसे बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष कहा गया है । * लेखक ने ग्रन्थाधार नहीं दिया है । (संपादक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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