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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण' श्रीप्रकाश पाण्डेय तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का भाष्य वाचक उमास्वाति (ई. सन् ३६५-४००) द्वारा रचित स्वोपज्ञ कृति है । यह जैन आगमिक-दार्शनिक साहित्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । पूरे जैन वाङ्मय में यदि कोई एक ग्रन्थ चुनना हो जो जैनदर्शन के लगभग प्रत्येक आयामों पर प्रकाश डालता हो तो वह वाचक उमास्वाति रचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ही है, जिसे जैन वाङ्मय का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ होने का गौरव भी प्राप्त है । सूत्रशैली में निबद्ध दशाध्यायात्मक इस लघुकाय ग्रन्थ में आचार्य उमास्वाति ने तत्त्व सम्बद्ध समस्त जैन तत्त्वज्ञान को संक्षेप में गागर में सागर की तरह भर दिया है जो उनकी असाधारण प्रज्ञा, क्षमता एवं उनके विशाल ज्ञानभंडार का परिचायक है । जैन परम्परा के सभी सम्प्रदायों में इस ग्रन्थ को समानरूप से महत्त्वपूर्ण माना जाता है । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर, वृत्ति एवं टीकाएँ लिखी तथा सूत्रों का अवलम्बन लेकर अपने-अपने अभीष्ट मतप्रदर्शक सिद्धांत प्रतिफलित किए । परंतु इस सबके बावजूद एक वस्तु निर्विवाद रही है : वह है ग्रन्थ की उपादेयता । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का संकलन आगमिक दृष्टि से जितना अधिक सुन्दर और आकर्षक हुआ है उसके रचयिता के विषय में उतने ही अधिक विवाद हैं । यही कारण है कि आज भी इस ग्रन्थ के रचयिता उमास्वाति हैं या गृध्रपिच्छ इसको लेकर विवाद कायम है । उसी प्रकार तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य की रचना को लेकर भी विवाद के बादल पूर्ववत् छाये हुए हैं। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता के रूप में उमास्वाति का नाम सामान्यतया श्वेताम्बर परंपरा में सर्वमान्य है । किन्तु पं० फूलचंदजी 'सिद्धांतशास्त्री' प्रभृति दिगम्बर विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के रूप में उमास्वाति के स्थान पर गृध्रपिच्छाचार्य को स्वीकार किया है । उनके शब्दों में “वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र की रचना की थी किन्तु यह नाम तत्त्वार्थसूत्र का न हो कर तत्त्वार्थभाष्य का है" । इस सन्दर्भ में उन्होंने षट् खण्डागम की धवलाटीका में वीरसेन (९वीं शती उत्तरार्ध) द्वारा उद्धृत तत्त्वार्थ के एक सूत्र, 'तहगिद्धपिंछाइरियाप्पयासिद तच्चत्थसुत्तेवि वर्तना परिणामक्रियाः परत्वा परत्वे च कालस्य, विद्यानन्द (२०वीं शती पूर्वार्ध) द्वारा उनके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में ‘एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता' के आधार पर तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में गृध्रपिच्छ का उल्लेख एवं वादिराजसूरि द्वारा पार्श्वनाथचरित में 'गृध्रपिच्छ नतोऽस्मि' इस तरह किए गए इन तीन उल्लेखों को अपना आधार बनाया है । इनमें एक प्रमाण नवीं शती के उत्तरार्ध, एक दशवीं शती के पूर्वार्ध का एवं एक प्रमाण ग्यारहवीं शती का है । परंतु जहाँ दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में ९वीं शती के उत्तरार्ध से गृध्रपिच्छाचार्य के और १२वीं शती से 'गध्रपिच्छ उमास्वाति' ऐसे उल्लेख मिलते हैं वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थभाष्य (चौथी शती) तथा सिद्धसेनगणि (८वीं शती) और हरिभद्र (८वीं शती) की प्राचीन टीकाओं में भी उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है । यही नहीं, उनके वाचक वंश और उच्चैर्नागर शाखा का भी उल्लेख है, जिसे श्वेताम्बर परम्परा अपना मानती है । तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति ही हैं और गृध्रपिच्छ उनका विशेषण है इस बात को दिगम्बर विद्वान् पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने भी स्वीकार किया है । पं० नाथूराम प्रेमी जैसे तटस्थ विद्वानों ने भी तत्त्वार्थभाष्य को स्वोपज्ञ मानकर उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति को ही स्वीकार किया है । पं० फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री ने सम्भवतः इस भय के कारण कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति को स्वीकार करने पर कहीं भाष्य को भी स्वोपज्ञ न मानना पड़े, उसके कर्ता के रूप में गृध्रपिच्छाचार्य का उल्लेख किया है । अतः यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य वाचक उमास्वाति द्वारा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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