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________________ Vol. II - 1996 कारणवाद के धातु-पाठ में कल संख्याने पाठ मिलता है। तदनुसार कलनं का अर्थ ज्ञान होगा । अतः जो ज्ञानात्मक है वही कर्ता होगा और ज्ञानात्मक तो केवल पुरुष ही है । इस प्रकार काल और पुरुष में भेद नहीं है । प्रकरणात् प्रकृतिः अर्थात् जो विस्तार करती है वह प्रकृति है । जैसे सत्त्व, रज, तमसात्मक प्रकृति से सृष्टि उत्पन्न होती है उसी प्रकार पुरुष से सृष्टि की उत्पत्ति होती है । अतः पुरुष और प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है । रूपादि का नियमन करने वालों को नियति कहते है । पुरुष भी रूपादि का नियमन करता है। अतः पुरुष और नियति अभिन्न है । अपने रूप में होना स्वभाव है। पुरुष भी अपने रूप में अर्थात् स्वरूप में उत्पन्न होता है । अतः स्वभाव भी पुरुष का ही पर्यायवाची शब्द है । पुरुषवाद का खण्डन : द्वादशारनयचक्र में उक्त पुरुषवाद की मर्यादाओं को प्रदर्शित करने के लिए आचार्य मल्लवादि ने नियतिवाद का उत्थान किया है । सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाया है कि पुरुषवाद में पुरुष ज्ञाता एवं स्वतंत्र है ऐसा माना गया है तब पुरुष को अनर्थ और अनिष्ट का भोग क्यों करना पड़ता है ? क्योंकि जो ज्ञानी है और जो स्वतंत्र है वह विद्वान् राजा की तरह सदा अनिष्ट और अनर्थ से मुक्त रहेगा । किन्तु व्यवहार में तो पुरुष को अनर्थ एवं अनिष्टों से व्याप्त देखा जाता है । अत: यह संभव नहीं है कि जो ज्ञाता हो, वह स्वतंत्र भी हो । ___यदि आपत्ति की जाय कि निद्रावस्था के कारण स्वतंत्र पुरुष की स्वतंत्रता का भंग होता है उसी प्रकार अनिष्ट और अनर्थ के आगमन का कारण पुरुष की प्रमत्त दशा ही है। किन्तु ऐसा जानने पर भी पुरुष में स्वतंत्रता की हानि ही जाननी पड़ेगी और ऐसी परिस्थिति में पुरुष परतंत्र होने के कारण कर्ता नहीं बन सकेगा । यदि ऐसा मान लिया जाए कि पुरुष स्वतंत्र एवं कर्ता होने पर भी अकर्ता और परतंत्र प्रतीत होता है तब पुरुषवाद का स्वयं लोप होगा क्योंकि जगत् की विचित्रता को सिद्ध करने के लिए पुरुषवाद का आश्रय लिया और पुरुषवाद में उक्त आपत्ति का निराकरण करने के लिए नियतिवाद की परतंत्रता का आश्रय लिया । अत: पुरुषवाद की अपेक्षा नियतिवाद ही श्रेष्ठ हुआ । इस प्रकार पुरुषवाद का भी खण्डन किया गया है । नियतिवाद का वर्णन आगे किया गया है पुरुषाद्वैत की स्थापना करना ही प्रस्तुत वाद का लक्ष्य है। इसकी स्थापना के लिए विभिन्न तर्को एवं आगम प्रमाण का आश्रय लिया है। पुरुषवाद की स्थापना कर देने पर भी उसमें अनेक दोषों का उद्भावन अन्य वाद के द्वारा कराया गया है । इस प्रकार एक अपेक्षा से पुरुषवाद सत्य है तो अन्य अपेक्षा से पुरुषवाद असत्य है । ऐसी स्थापना करके आ. मल्लवादी ने अपनी विशिष्ट शैली का परिचय दिया है । भाववाद: सृष्टि के कारक तत्त्व की चर्चा करते हुए नयचक्र में काल-स्वभाव-स्थिति-नियति और पुरुष की चर्चा के पश्चात् भाववाद की चर्चा की गई है।३ । भाववाद की यह चर्चा कारक के प्रसंग में द्वादशारनयचक्र की अपनी विशेषता है । यद्यपि ऋग्वेद में सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाया गया था कि सृष्टि सत् से या भाव से हुई अथवा असत् या अभाव से हुई ? भाववाद वस्तुतः यह विचारणार्थ है कि जो यह मानता है कि भाव या सत् से ही सृष्टि संभव है या सृष्टि का एक मात्र कारण है । सामान्य रूप से यह प्रश्न सदैव उठ रहा है कि जिसकी कोई सत्ता नहीं है उससे उत्पत्ति कैसे संभव है ? उत्पत्ति का आधार तो कोई भावात्मक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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