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२६ जितेन्द्र शाह
Nirgrantha जगत् है या जो भविष्यत् जगत् होगा वह भी पुरुष ही है। वह देवताओं का भी स्वामी है। सारा ही जगत् इस विराट पुरुष का सामर्थ्य विशेष ही है ।
सृष्टि एवं प्रलय भी इसी पुरुष के अधीन है। पुरुष सर्वात्मक है। चेतना-चेतना सृष्टि की उत्पत्ति इसी पुरुष से हुई है । इस प्रकार सर्वप्रथम "पुरुषसूक्त" में पुरुषवाद विषयक दार्शनिक चर्चा प्राप्त होती है । तदनन्तर श्वेताश्वतर उपनिषद् में पुरुष को जगत् का कारण मानने वाले सिद्धान्त का उल्लेख मात्र किया गया है । उपनिषद् में इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाली पंक्तियाँ मिलती है। कहा गया है कि "एक ही देवतत्त्व सर्वभूत में स्थित है अर्थात् विश्व का एकमात्र कारण पुरुष ही है। संसार में पुरुष के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है८ । जैसे चन्द्र एक ही है तथापि उसके प्रतिबिम्ब विभिन्न जल पूरित पात्रों में पाए जाते हैं उसी तरह भिन्न-भिन्न देह में भिन्न-भिन्न एक ही आत्मा पायी जाती है।
द्वादशारनयचक्र में भी "पुरुषसूक्त" के ही मंत्र को उद्धृत करके पुरुषवाद की स्थापना की गई है । पुरुष ही जगत् का एकमात्र कारण है । सर्वजगत् पुरुषमय ही है । पुरुष एक ही अतः सर्व सत्ता एकात्मक ही है९ । पुरुष ही जगत् का कर्ता है क्योंकि जो ज्ञानवान् होता है, वही स्वतंत्र होता है और जो स्वतंत्र होता है वही कर्ता होता है। जो अज्ञानी है उसमें स्वातंत्र्य संभवित नहीं है और जिसमें स्वातंत्र्य नहीं होता उसमें कर्ताभाव नहीं होता ।
नयचक्रवृत्ति में इस सिद्धान्त की पुष्टि में व्याख्याप्रज्ञप्ति की पंक्ति एकोऽप्यहमनेकोऽप्यहम् को उद्धृत किया गया है । उक्त सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं - मैं एक भी हूँ और अनेक भी हूँ । इस प्रकार पुरुष की सर्वोपरिता सिद्ध करते हुए पुरुषवाद की स्थापना की गई है। पुरुषवाद : आक्षेप और आक्षेप-परिहार :
जो ज्ञाता होता है वही कर्ता होता है। ऐसा मानने पर तो दूध से दही और इक्षु रस से गुड़ादि निष्पन्न नहीं होंगे। क्योंकि यहाँ तो ज्ञाता के बिना ही क्रिया निष्पन्न होती है। इसका समाधान करते हुए पुरुषवादी कहते हैं कि यह बात ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ कार्य-प्रवृत्ति पूर्ण नहीं हुई है अतः आपको ऐसा भ्रम होता है कि इसका कोई कर्त्ता नहीं है किन्तु दूध, दही, मक्खन और तत्पश्चात् उससे घी यह सारी कार्य-प्रवृत्ति पुरुष चेतन सत्ता के अधीन ही होती है। जैसे प्रारम्भ में कुम्हार चक्र को घुमाता है किन्तु उसके बाद भी चक्र कुछ समय तक गतिमान रहता है चाहे उस समय कुम्हार चक्र घुमाते हुए नहीं दिखाई देता है फिर भी हम यह अनुमान करते हैं कि इसे कुम्हार ने ही घुमाया है। उसी प्रकार यहाँ भी चाहे प्रकटतः कर्ता पुरुष न दिखाई दे, किन्तु उसके मूल में तो वही होता है ।
___ यदि आप ऐसा मानते है कि पुरुष ही सबका कारण है तब यह आपत्ति आती है कि पुरुष स्वयं अपनी उत्पत्ति एवं लय में कारण कैसे बन सकता है ? जैसे अंगुली का अग्रभाग अपने अग्रभाग को छू नहीं सकता एवं तलवार अपने आपको छेद नहीं सकती०३ । इसका समाधान आचार्य मल्लवादि ने मुण्डकोपनिषद् की कारिका के आधार पर दिया है कि जैसे मकड़ी अपनी जाल बनाती है और फिर वापस उसी को ग्रहण करती है तथा जैसे वनस्पतियाँ पृथ्वी से उत्पन्न होती है और पृथ्वी में ही विलीन हो जाती है । जिस प्रकार अग्नि से स्फुलिंग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुरुष से ही सारी सृष्टि उत्पन्न होती है । इस सिद्धान्त में कोई आपत्ति नहीं आती है । - पुरुष की काल, प्रकृति, नियति, स्वभाव आदि से एकरूपता :
द्वादशारनयचक्र में शब्दों की व्युत्पत्ति के आधार पर अन्य कालादि तत्त्वों को भी पुरुष रूप ही सिद्ध किया है। जैसे पुरुष ही काल है। क्योंकि कलनात् कालः इस व्युत्पत्ति के आधार पर पाणिनि
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