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Vol. II - 1996
अकलंकदेव कृत आप्तमीमांसाभाष्य...
इस प्रकार है२५ -
संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना ।
स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मतिः ॥ २८ वीं कारिका की विवृति में अकलंकदेव ने "वक्तुरभिप्रेतं वाचः सूचयन्ति अविशेषेण नार्थतत्त्वमपि" - वाक्य उद्धृत किया है । इसका ठीक ठीक स्रोत तो नहीं मिलता, परन्तु प्रमाणवार्तिक (१/६७, पृ. ३०) उसकी मनोरथ नन्दिनी टीका (पृ. ३०) एवं मोक्षाकरगुप्तकृत तर्कभाषा (पृ. ४) आदि में उक्त उद्धरण का भाव अवश्य मिलता है ।
कारिका संख्या ४१ की विवृति में "गुणानां परमं रूपं" - इत्यादि८ कारिका उद्धत की गई है। शांकरभाष्य पर भामती टीका, का कर्ता वाचस्पति मिश्र ने इसे वार्षगण्य कृत बताया है - अतएव योगशास्त्रं व्युत्पादयितुमाह स्म भगवान् वार्षगण्य :
गुणानां परमं रूपं- । योगसूत्र की तत्त्ववैशारदी० एवं योगसूत्र की भास्वती, पातंजलरहस्य में इसे "षष्टितन्त्र शास्त्र की कारिका बताया है। जैसे
षष्टितन्त्रशास्त्रस्यानुशिष्टि :गुणानां परमं इत्यादि । और योगभाष्य में इस कारिका को उद्धृत करते कहा गया है-तथा च शास्त्रानुशासनम्गुणानां परमं रूपं–३२ ।।
कारिका ४४ की विवृति में 'नहि बुद्धेरकारणं विषयः यह वाक्य उद्धृत है । इसका मूल स्थान अभी मिल नहीं सका है।
कारिका ५४ की विवृति में अकलंक ने "ततः सुभाषितम्" करके "इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य अर्थो विषयः" यह वाक्य उद्धृत किया है।४ । यह किस शास्त्र का वाक्य है, इसका पता नहीं चलता ।
उक्त वाक्य वादिराजसूरिकृत न्यायविनिश्चयविवरण में भी उद्धृत है -
"इन्द्रियमनसी विज्ञानकारणमिति वचनात् ।" तथा विद्यानंद ने भी अपने श्लोकवार्तिक में अकलंक के सन्दर्भ सहित इसे उद्धृत किया है५ -
"तस्मादिदिन्द्रयमनसी विज्ञानस्य कारणं
नार्थोऽपीत्यकलंकैरपि-" । सत्तावनवीं कारिका की विवृति में "नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयः" वाक्य को उद्धृत करते हुए अकलंक ने इसे वालिशगीत कहा ह६ । यह वाक्य अन्य बहुत से ग्रन्थों में भी उद्धृत मिलता है ।
५४ वीं कारिका की विवृति में "तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादि" वाक्याशं ग्रहण किया गया है । यह अंश धर्मकीर्ति कृत न्यायबिन्दुप्रकरण की आर्यविनीतदेवकृत न्यायबिन्दुविस्तरटीका का है । मूल वाक्य इस प्रकार है -
तिमिराशुभ्रमण-नौयान-संक्षोभायना-हितविभ्रममिति ।
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