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________________ कमलेश कुमार जैन Nirgrantha "नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते" यह वाक्य आप्तमीमांसा की ही एक कारिका का पूर्वार्ध है । कारिका १०६ के भाष्य में अकलंक ने 'तथोक्तम्' करके एक उद्धरण दिया है "अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ॥ इस कारिका का प्रथम चरण अकलंकदेव कृत न्यायविनिश्चय की कारिका संख्या २९९ से ज्यों का त्यों मिलता है । परन्तु शेष भाग नहीं मिलता । न्यायविनिश्चय की कारिका इस प्रकार है५ । अर्थस्यानेकरूपस्य कदाचित्कस्यचित्क्वचित् । शक्तावतिशयाधानमपेक्षातः प्रकल्प्यते ॥ यह भी संभव है कि अकलंक की इन दोनों कारिकाओं का निर्देश स्थल या आधार कोई अन्य ग्रन्थ हो, और उसी के अनुसार अकलंक ने न्यायविनिश्चय की कारिका का संगठन किया हो । किसी सबल प्रमाण के बिना निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है । २. सविवृति लघीयस्त्रय लघीयस्त्रय में अकलंकदेव ने कुल आठ (८) उद्धरणों का प्रयोग किया है६ । कारिका संख्या ३ (तीन) की विवृति में अकलंकदेव ने "अपर" शब्द के द्वारा किसी वादी के मत का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं-"नहि तत्त्वज्ञानमित्येव यथार्थनिर्णयसाधनम् इत्यपर:१७ । इस कथन को व्याख्याकार प्रभाचन्द्राचार्यने दिङ्नाग का मत बतलाया है। इस विवृति का व्याख्यान करते हुए प्रभाचन्द्र ने लिखा हैहि यस्मात् न तत्त्वस्य परमार्थस्य ज्ञानमित्येव यथार्थनिर्णयसाधनम् अपितु किञ्चिदेव, तदैव च प्रमाणम्। तदुक्तम् - "यत्रैव जनयेदेना" तत्रैवास्य प्रमाणता" इत्यपर:- दिङ्नागादिः । परन्तु सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार ने इसे धर्मोत्तर का मत बतलाया है। वे लिखते है९-अ - "अत्र अपरः सौगतः प्राह-"यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इति धर्मोत्तरस्य मतमेतत् ।" अन्य अनेक आचार्यों का भी यही कथन है९-ब । कारिका संख्या आ. (८) की विवृति में अकलंक ने "अर्थक्रियासमर्थ परमार्थसत् इत्यङ्गीकृत्य" इस वाक्यांश का उल्लेख किया है । यह वाक्यांश प्रमाणवार्तिक की कारिका का अंश है । प्रमाणवार्तिक में पूरी कारिका इस प्रकार पायी जाती है - अर्थक्रियासमर्थं यत्तदत्र परमार्थसत् । अन्यत्संवृतिसत् प्रोक्तम् ते स्वसामान्यलक्षणे ॥ बारहवीं कारिका की विवृति में "तन्नाप्रत्यक्षव्यतिरिक्तं प्रमाणम्" वाक्य उद्धृत किया है । यह किसी बौद्धाचार्य का मत है। यही वाक्य अकलंक ने अपने एक अन्य ग्रन्थ प्रमाणसंग्रह की कारिका १९ की विवृति में भी "अयुक्तम्" करके उद्धृत किया है । वहाँ पर "प्रमाणम्" के स्थान पर "मानम्" पाठ मिलता है। तेइसवीं कारिका की विवृति "सर्वतः संहृत्य चिन्तां स्तिमितान्तरात्मना स्थितोऽपि चक्षुषां रूपं"२४ इत्यादि वाक्य से प्रारम्भ होती है। यह वाक्य भी प्रमाणवार्तिक की कारिका का अविकल रूप है। कारिका Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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