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________________ जितेन्द्र बी० शाह (२) उत्तराध्ययनसूत्र के तृतीय अध्याय 'चाउरंगिज्जं (प्रायः मौर्यकाल) में कहा गया है कि : चत्तारि परमंगानि दुल्लहाणीह जंतुना । मानुसंत्तं सुती सद्धा, संजमंहि य वीरियं ॥ ४१ ॥ ३८ तथा दशम अध्ययन "दुमपत्तयं" में लडून वि मानुसत्तनं आरिअत्तं पुनरवि दुल्लहं ..... ।। १६ ।। लडून वि आरियत्तन, अहीन पंचिंदियया हु दुल्लहा.....।।१७।। . अहीनपंचिंदियत्तं पि से लहे, उत्तम धम्म सुती हु दुल्लहा ॥ १८॥ लडून वि उत्तमं सुती, सद्दहना पुनरवि दुल्लहा ..... ।। १९ ।। धम्मं पिहू सदहंतया, दुल्लहया काएन फासतां । इह काम गुणेहि मुच्छिया, समयं गोतम ! मा पमादए.....||२०|| अर्थात् मनुष्यत्व, आर्यत्व, पंचेन्द्रियत्व, धर्मश्रुति श्रद्धा एवं आचरण क्रमशः दुर्लभ हैं अतः एक क्षण का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। करीब इसी प्रकार का कथन करने वाली आर्या, आत्मानुशासन में भी प्राप्त होते हैं। यथा: Jain Education International मानुषतामायुष्कं बोधिं च सुदुर्लभां सदाचारं । नीरोगतां च सुकुले जन्म पटुत्वं च करणानाम् ।। ५५ ।। आसाद्यैवं सकलं प्रमादतो मा कृथा वृथा हन्त । स्वहितमनुतिष्ठ तूर्णं येन पुनर्भवसि नो दुःखी ॥ ५६ ॥ अतः यह स्पष्ट है कि कर्त्ता उत्तराध्ययन से परिचित थे । (३) सूत्रकृतांग अंतर्गत वीरत्थव (प्रायः ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) में अर्हत् वर्धमान की उत्तमता सिद्ध करने के लिए जिस प्रकार अलग-अलग उपमा दृष्टान्त दिये गये हैं उसी प्रकार प्रस्तुत कृति में भी धर्म की उत्तमता सिद्ध करने के लिए उपमा दृष्टान्त दिए गये हैं । यथा : जोधे नाते जथ वीरसेने पुप्फेसु वा जथ अरविन्द माहु । खत्तीन सेठे जथ दंतवक्के इसीन सेठे तथ वद्धमाने ।। २२ ।। - वीरत्थयो Nirgrantha यद्वदुडूनां शशभृत्, शैलानां मेरूपर्वतो यद्वत् । तद्वद्धर्माणामिह धर्मप्रवरो दयासारः ।। आत्मानुशासन- ६१ यद्यपि दृष्टान्त एक नहीं लेकिन दोनों के बीच शैली का साम्य स्पष्ट है । इन सबके आधार पर श्वेताम्बर कर्तृत्व पुष्ट होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522701
Book TitleNirgrantha-1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1995
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size10 MB
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