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अल्पकाल में ही नष्ट कर देता है तथा देव एवं दानवों को अपने समक्ष झुका देता है।
आहार का प्रयोजन
सभी जानते है की भोजन का प्रयोजन शरीर के निर्वाह के लिये आवश्यक है। संसार के प्रत्येक प्राणी का शरीर नैसर्गिक रूप से ही इस प्रकार का बना हुआ है कि आहार के अभाव में वह अधिक काल तक नही टिक सकता। इसलिये शरीर के प्रति रहे हुए का परित्याग कर देने पर भी बडेबडे महर्षियों को, मुनियों को तथा योगी तपस्वियों को भी शरीरयात्रा का निर्वाह करने के लिए आहार लेना जरूरी होता है। किंतु आज मानव यह भूल गया है कि इस शरीर का प्रयोजन केवल आत्मसाधना में सहायक होना ही हैं। चूँकी शरीर के अभाव में कोई भी धर्मक्रिया, साधना या कर्मबंधनों को काटने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता है। अतएव इसे टिके रहने मात्र के लिये ही खुराक देनी पडती है। शरीर साध्य नहीं है, यह अन्य किसी एक उत्तमोत्तम लक्ष्य की प्राप्ती का साधनमात्र है।
खेद की बात है कि आज का व्यक्ती इस बात को नहीं समझता। वह तो इस शरीर को अधिक से अधिक सुख पहुँचाना अपना लक्ष्य मानता है और भोजन को उसका सर्वोपरि उत्तम साधन । परिणाम यह हुआ की इस प्रयत्न में यह भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं करता तथा मांस एवं मदिरा आदि निकृष्ट पदार्थों का सेवन भी निस्संकोच करता चला जाता है। जिव्हालोलुपता के वशीभूत होकर वह अधिक से अधिक खाकर अपने शरीर को पुष्ट करना चाहता है तथा ऊनोदरी किस चीज का नाम है, इसे जानने का भी प्रयत्न नहीं करता ।
इसका परिणाम क्या होता है? यही कि अधिक ठूस ठूस कर खाने से शरीर में स्फूर्ती नही रहती, प्रमाद छाया रहता है और उसके कारण अध्यात्मसाधना गूलर का फूल बनी रहती है। मांस मदिरा आदि का सेवन करने से तथा अधिक खाने से बुद्धि का -हास तो
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होता ही है, चित्त की समस्त वृत्तीयाँ भी दूषित हो जाती है। ऐसी स्थिती में मनुष्य चाहे कि वह शानार्जन करे, तो क्या यह संभव है? कदापि नहीं । ज्ञान की साधना ऐसी सरल वस्तु नहीं है, जिसे इच्छा करते ही साध लिया जाये इसके लिये बडा परिश्रम, बडी सावधानी और भारी त्याग की आवश्यक रहती है। आहार के कुछ भाग का त्याग करना अर्थात् ऊनोदरी करना भी उसी का एक अंग है । अगर मनुष्य भोजन के प्रति अपनी गृद्धता तथा गहरी अभिरूची को कम करे तो वह ज्ञान हासिल करने में कदम आगे बढ सकता है। क्योंकि अधिक खाने से निद्रा अधिक आती है तथा निद्रा की अधिकता के कारण बहुतसा अमूल्य समय व्यर्थ चला जाता है।
आशय यही है कि मनुष्य अगर केवल शरीर टिकाने का उद्देश रखते हुए कम खाये शरीर टिकाने का उद्देश रखते हुए कम खाये या शुद्ध और निरासक्त भावनाओं के साथ ऊनोदरी तप करे तो अप्रत्यक्ष में तप के उत्तम प्रभाव से तथा प्रत्यक्ष में अधिक खाने से प्रमाद और निद्रा की जो वृद्धी होती है, उसकी कमी से अपनी बुद्धी को निर्मल, चित्त को प्रसन्न तथा शरीर को स्फूर्तीमय रख सकेगा तथा ज्ञानाभ्यास में प्रगती कर सकेगा। खाद्य वस्तूओं की ओर से उसकी रूचि हट जायेगी तथा ज्ञानार्जन की ओर अभिरूची बढेगी।
सुख प्राप्ती के तीन नुस्खे हकीम लुकमान से किसी ने पूछा'हकीम जी ! हमें आप ऐसे गुण बताइये कि 'हकीम जी! हमें आप ऐसे गुण बताइये कि जिनकी सहायता से हम सदा सुखी रहें। क्या आपकी हकीमी मे ऐसे नुस्खे हैं?
लुकमान ने चट से उत्तर दिया- 'है क्यों नहीं, अभी बताये देता हूँ। देखो! अगर तुम्हें सदा सुखी रहना है तो केवल तीन बातों का पालन करो - पहली कम खाओ, दुसरी गम खाओ, तीसरी नम जाओ।
हकीम लुकमान की तीनों बातें बड़ी की तीनों बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण है। पहली बात उन्होंने कही कम खाओ। ऐसा क्यो ? इसलिये कि मनुष्य अगर कम खायेगा तो वह अनेक बामीरियों से बचा रहेगा। अधिक खाने से अजीर्ण होता है और
भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९ ॥ ५
अर्जीणं से कई बीमारियाँ शरीर में उत्पन्न हो जाती है, इसके विपरित अगर खुराक से कम खाया जाये तो कई बीमारियाँ बिना इलाज किये भी कट जाती हैं। आज के युग में तो कदम-कदम पर अस्पताल और हजारों डाक्टर हैं किन्तु प्राचीन काल में जबकि डाक्टर नहीं के बराबर ही थे, वैद्य ही लोगों की बीमारीयों का इलाज करते थे और उनका सर्वोत्तम नुस्खा होता था बीमार को लंघन करवाना । लंघन करवाने का अर्थ हैआवश्यकतानुसार मरीज को कई-कई दिन तक खाने को नहीं देना । परिणाम भी इसका कम चमत्कारिक नहीं होता था। लंघन के फलस्वरूप असाध्य बीमारियां भी नष्ट हो जाया करती थीं तथा जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर मैल जल जाने से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उपवास की अग्नि में रोग भस्म हो जाता था तथा शरीर कुन्दन के समान दमकने लग जाता था। लंघन के पश्चात व्यक्ति अपने आपको पूर्ण स्वस्थ और रोगरहित पाता था ।
लुकमान की दुसरी बात थी- गम खाओ । आज अगर आपको कोई दो शब्द ऊंचे बोल दे तो आप उछल पडते हैं। चाहे आप उस समय स्थानक में संतों के समक्ष ही क्यों न खड़े हों। बिना संत या गुरू का लिहाज किये ही उस समय ईट का जवाब पत्थर से देने को तैयार हो जाते है किन्तु परिणाम । क्या होता है? यही की तू-तू-मैं-मैं से लेकर गाली-गालौज की नौबत आ जाती है। पर अगर कहने वाले व्यक्ति की बातों को सुनकर भी आप उनका कोई उत्तर न दें तो ? तो बात बड़ेंगी नहीं और लडाई झगडे की नौबत ही नहीं आयेगी उलटे कहनेवाले की कटु बातें या गालियां उसके पास ही रह जायेंगी। जैसा कि सीधी-सादी भाषा में कहा गया हैदीधा गाली एक हैं, पलट्यां होय
अनेक |
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जो गाली देवे नहीं, तो रहे एक की
एक ॥