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उपांग, छन्द, सूत्र - मूल आदि तो प्रसिद्ध है। दार्शनिक साहित्य में सम्मति प्रकरण आदि अनेक ग्रंथ है। औपदेशिक साहित्य में 'उपदेश 'माला' जैसे ग्रंथों की एक लम्बी परम्परा है। प्रकरण साहित्य में जीव - विचार, नवतत्व, दण्डक, क्षेत्र समास, संघयणी, कर्मग्रंथ आदि सैकड़ों प्रकरण ग्रंथ हैं। महापुरुषों से संबंधित सैकडों चरित काव्य प्राप्त है। कथाग्रंथ गद्य और पद्य में हैं। सैकड़ों छोटी-बडी कथाएं स्वतंत्र रूप से और टीकाओं आदि में पाई जाती हैं।
सर्वजनोपयोगी साहित्य में व्याकरण, छन्द, कोष, अलंकार आदि काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का समावेश होता है। प्राकृत के कई कोष एवं छन्द ग्रंथ प्रकाशित हो चुके है। 'पाइय लच्छी नाममाला' और 'जयदामन छन्द' प्रसिद्ध है। अलंकार का एकमात्र ग्रंथ 'अलंकार दप्पण' जैसलमेर भण्डार की ताडपत्रीय प्रति में मिला था, जिसे मेरे भतीजे भँवरलालने हिंदी अनुवाद के साथ मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित करवा दिया है। भँवरलालने प्राकृत में कुछ पद्यों की रचना भी की है और जीवदया प्रकरण, नाना वृत्तक प्रकरण और बालबोध प्रकरण को भी हिंदी अनुवाद सहित हमारे 'अभय जैन ग्रंथालय' से प्रकाशित करवाया है। ठाकुर फेरू के 'धातोत्पत्ति' 'द्रव्य-परीक्षा' और 'रत्न परीक्षा' का भी उसने हिंदी अनुवाद किया है। इनमें से 'रत्न परीक्षा' तो हमारे 'अभय जैन ग्रंथालय' से प्रकाशित हो चुकी है। 'धातोत्पति' यू. पी. हिस्टोरिकल जर्नल में सानुवाद डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के द्वारा प्रकाशित करवा दी है। ‘द्रव्य-परीक्षा' सानुवाद टिप्पणी लिखने के लिए डॉ. दशरथ शर्मा को दी हुई है। इसी तरह कांगडा राजवंश संबंधी एक महत्वपूर्ण रचना का भी भँवरलालने अनुवाद किया है। उस पर ऐतिहासिक टिप्पणियाँ डॉ. दशरथ शर्मा लिख देंगे, प्रकाशित की जायेगी ।
तब
अनुपलब्ध प्राकृत रचनाएँ प्राकृत का बहुत सा साहित्य अब अनुपलब्ध है। उदाहरणार्थ स्थानांगसूत्र में दश दशाओं के
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नाम व भेद मिलते हैं। उनमें से बहुत से ग्रंथ अब प्राप्त नहीं हैं। इसी प्रकार नन्दीसूत्र में सम्यग सूत्र और मिथ्या सूत्र के अंतर्गत जिन सूत्रों के नाम मिलते हैं, उनमें खुड्डिआविमाणपविभती, महल्लिया विमाण विभती, अंगचूलिया, बग्गचूलिया, विवाह-चूलिया, अयणोववाए, वसणोववाए, गुयलोबवाए, धरणोक्वाए बेसमोववाए, वेलधरोववाए, देविदोबवाए, उट्ठाणसुयं, समुद्वाणसुयं, नागपरियावणियाओ, आसीविसभावणाणं, दिट्ठिविसभावणाणं, सुमिणभावणाणं महासु मिणभावणाणं, तेवगिनिसगाणं पाक्षिक सूत्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। व्यवहार सूत्र आदि में भी जिन आगम ग्रंथों का उल्लेख हैं, उनमें से कुछ प्राप्त नहीं हैं।
प्राकृत भाषा के कई सुंदर कथा-ग्रंथ जिनका उल्लेख मिलता हैं, अब नहीं मिलते। उदाहरणार्थ- पादलिप्तसूरि की 'तरंगवई कहा ' तथा विशेषावश्यक भाष्य आदि में उल्लिखित 'नरवाहनयताकहा', मगधसेना, मलयवती। इसी तरह ११वीं शताब्दी के जिनेश्वरसूरि की 'लीलावई - कहा' भी प्राप्त नहीं है। कई ग्रंथ प्राचीन ग्रंथों के नामवाले मिलते हैं पर वे पीछे
के रचे हुए हैं - जिस प्रकार 'जोणीपाहुड' हैं जिस प्रकार जोणीपाहुड' प्राचीन ग्रंथ का उल्लेख मिलता हैं, पर वह
और प्रश्नव्याकरण से वह कितनी भिन्नता रखता है? यह बिना मिलान किये नहीं कहा जा सकता ।
पंजाब के जैन भण्डारों का अब रूपनगर दिल्ली के श्वेताम्बर जैन मंदिर में अच्छा संग्रह हो गया है, उनमें शोध करने पर मुझे एक अज्ञात बिंदिशासूत्र की प्रति प्राप्त हुई है। फिर इसकी एक और प्रति विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार जयपुर में भी मिली हैं। मैंने इस अज्ञात सूत्र के संबंध में श्रमण के जून ७१ अंक में संक्षिप्त प्रकाश डाला है इसका सम्पादन करने के लिए मुनिश्री नथमलजी को इसकी कॉपी दी गई हैं। प्राकृत का यह सूत्र ग्रंथ छोटासा है पर हमें इससे यह प्रेरणा मिलती है कि अन्य ज्ञान -भण्डारों में भी खोजने पर ऐसी अज्ञात रचनाएँ और भी मिल सकेंगी।
६वीं शती के जैनाचार्य वप्पभट्टिसूर के 'तारागण' नामक ग्रंथ का प्रभावक चरित्र आदि में उल्लेख ही मिलता था पर किसी भी भण्डार में कोई प्रति प्राप्त नहीं थी, इसकी भी एक प्रति मैंने खोज निकाली है। वैसे बहुत वर्ष पहले इसकी यह प्रति अजीमगंज में यति ज्ञानचन्दजी के पास मैंने देखी थी पर फिर प्रयत्न करने पर भी वह मिल नहीं सकी थी। गतवर्ष अचानक बीकानेर के श्रीपूज्यजी का संग्रह जो कि राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान की बीकानेर शाखा में दे दिया गया है, उसमें यह प्रति मिल गई, तो उसका विवरण मैंने 'वीरवाणी' में तत्काल प्रकाशित कर दिया। उसकी रचना पढते ही मुझे डॉ. ए. एन. उपाध्याय ने पत्र लिखा और उन्होंने फोटो प्रति करवा ली है। इसी तरह ३० वर्षपूर्व भारत के प्राकृत जैनेत्तर कामशास्र की एक भाग अपूर्ण प्रति मुझे अनुप संस्कृत लाइब्रेरी में प्राप्त हुई थी। प्राकृत भाष के इस एकमात्र कामशास्त्र का नाम है 'मदनमुकुट'। यह गोसल ब्राह्मण ने सिन्धु के तीरवर्ती माणिक महापुर में रचा था। इसका विवरण मैंने तीस वर्षं पहले 'भारतीय विद्या' वर्ष २, अंक २ में प्रकाशित कर दिया था। उस समय की प्राप्त प्रति में तीसरे परिच्छेद की पैंतीस गाथाओं तक का ही अंश मिला था ।
अप्राप्त हैं। प्रश्नश्रमण के रचित पाहु भी एक मात्र अपूर्ण प्रति भाण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, पूना में सम्वत् १५८२ की लिखी हुई हैं। इसकी दूसरी प्रति की खोज करके उसे सम्पादित करके प्रकाशित करना चाहिए | प्रश्नव्याकरण सूत्र भी अब मूल रूप में प्राप्त नहीं हैं, जिसका कि विवरण समवायांग और नन्दी सूत्र में मिलता है। इसी तरह के नामवाला एक सूत्र नेपाल की राजकीय लाइब्रेरी में हैं। मैंने इसकी नकल प्राप्त करने के लिए प्रेरणा की थी और तेरापन्थी मुनिश्री नथमल जी के कथनानुसार रतनगढ़ के श्री रामलालजी गोलछा जो नेपाल के बहुत बडे जैन व्यापारी हैं, उन्होंने नकल करवा के मंगवा भी ली है। पर अभी तक वह देखने में नहीं आई अतः पाटण और जैसलमेर भण्डार में प्राप्त जयपाहुड
५६ | भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९
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