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________________ 70 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 इस तरह से हम देखते हैं कि तप के स्वरूप को लेकर विद्वानों के विचार भिन्न-भिन्न है । लेकिन इन सबों के विचार में एकरूपता भी है और वह है-तप के द्वारा मुक्ति व शांति की प्राप्ति । क्योंकि तप की सहायता से सभी प्रकार की अपवित्रता, सम्पूर्ण कषाय एवं समस्त प्रकार की अशांतियों को दूर किया जा सकता है। तप के भेव तप के द्वारा कर्मों का क्षय करके आत्मा को शुद्ध किया जाता है। अगर तप की विधियों और प्रकियाओं पर दृष्टिपात किया जाए तो इसे मुख्य रूप से दो वर्गों में बांटा जा सकता है । प्रथम बाह्य तप एवं द्वितीय अभ्यन्तर (आंतरिक तप)।' (१) बाह्य तप-शारीरिक विकारों को नष्ट करने तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले तप को बाह्य तप कहा जाता है। इसके छह भेद है'-(i) अनशन, (it) अवमौदर्य, (it) वृत्तिपरिसंख्यान, (iv) रसपरित्याग, (v) विविक्तशय्यासन और (vi) कायक्लेश । (२) आम्यन्तर तप-कषाय, प्रमाद आदि आंतरिक विकारों को आभ्यन्तर तप की सहायता से क्षय किया जाता है । इसके भी छः भेद है'-(1) प्रायश्चित, (ii) विनय (iii) वैया. वृत्य, (iv) स्वाध्याय, (v) ध्यान और (vi) व्युत्सर्ग । (१) बाह्य तप बाह्य द्रव्य के आलम्बन से दूसरों को देखने में आने वाले तप बाह्य तप कहलाते हैं।' अनागार-धर्मामृत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिस तप की साधना विशेष रूप से देह से सम्बन्धित है या जिसकी सहायता से देह को क्षीण किया जाता है वह तप बाह्य तप है। 'भगवती आराधना' के अनुसार-बाह्यतप से सब प्रकार के सुख मूलक कारण छूट जाते है क्योंकि शरीर सुख-दुःख का कारण है । इसको छोड़ने का साधन है शरीर को कृश करना। ऐसा करने से आत्मा संवेग या संसारभीरूता नामक अवस्था में स्थिर हो जाती है। इस तरह बाह्य तप की सहायता से व्यक्ति अपने तन और मन को सहिष्णु बना लेता है। इसके छह भेदों का संक्षेप में विवेचन किया जा रहा है (i) अनशन-साधारणतः अनशन का अर्थ उपवास या आहार त्याग समझा जाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है कि मन और इन्द्रियों को जीतकर इहलोक तथा परलोक १. मूलाचार, ३४५। २. अनशनअवमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश बाह्य तपः ॥९॥१९॥ तत्त्वार्थसूत्र । ३. प्रायश्चित विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युतरम् ॥९॥२०॥ वही० । ४. सर्वार्थसिद्धि ९।१९ । ५. अनागार धर्मामृत ७८ । ६. बाहिस्तवेण होदि हु सवा सुहसीलदा परिच्चत्ता । सल्लिहिदं च सरीरं विदो अप्पा य संवेगे ॥२३९॥ भगवती आराधना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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