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जैन धर्म में तप
रज्जन कुमार* जैन धर्म अपनी साधना पद्धति के लिए विख्यात है। तप का जैन साधना पद्धति में एक अलग स्थान है। सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक् तप ये चारों जैन साधना पद्धति के चार अंग है इनमें से सम्यक् तप का अपना विशिष्ट महत्त्व है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-"आत्मा ज्ञान से जीवादि भेदों को जान लेता है, दर्शन से श्रद्धान् करता है, चारित्र से कर्मास्रव का निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है । समस्त दुःखों से मुक्त होने के लिए व्यक्ति संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है।''
___ जैन परंपरा में तप का मुख्य लक्ष्य कर्मों का क्षय करना है। आचार्य वट्टकेर के अनुसार जिस प्रकार अग्नि हवा की सहायता से तृण और काष्ठादि को जलाती है उसी प्रकार ज्ञानरूपी हवा से युक्तशील, समाधि और संयम से प्रज्वलित तपरूपी अग्नि संसाररूपी बीज को जलाती है, जिस प्रकार मिट्टो तथा अन्य इसी प्रकार की अशुद्धियों से युक्त स्वर्ण अग्नि में तपाकर शुद्ध किया जाता है ठीक उसी प्रकार जीव तप के द्वारा कर्मों को जलाकर स्वर्ण की तरह ही शुद्ध हो जाता है। तप का स्वरूप
तप के स्वरूप पर विचार करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-पंचेन्द्रिय विषय और चार कषायों (काम, क्रोध, मान और माया) का विनिग्रह करके ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मचिन्तन करना तप है । अकलंकदेवभट्ट के अनुसार कर्मक्षय में जो साधना सहायक होती है वह तप है।' जयसेवाचार्य के अनुसार “रागादि समस्त भाव इच्छाओं के त्याग से स्वस्वरूप में प्रतपन-विजयन करना तप है।"
* शोध छात्र, दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
१. उत्तराध्ययन सूत्र २८३३५, ३६ । २. मूलाचार ८1५६, ५७।। ३. विसयकषाविणिवगाहभावं काऊण झाणसज्झाए । जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ।। ७७ ।।
बारसअणुवेक्खा ४. कर्मक्षयार्थ तप्यन्त इति तपः । ९।६।१७, तत्त्वार्थवार्तिक । ५. समस्तरागादिपरभावेच्छाप्यागेन स्वस्वरूपेप्रतपनं विजयनं तपः ।
-प्रवचनसार, गाथा ७९
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