SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 कठोर तर्क उसे रोकने का प्रयत्न क्यों न करें। मानव की दुर्बलता और अपूर्णता उसे अपने से परे किसी पूर्ण एवं अनंत शक्ति में विश्वास करने को बाध्य कर देती है । २. सांसारिक जीवों की मांग एक सम्प्रदाय व मत के लिए रहती ही है जो उनकी नैतिक एवं धार्मिक अवस्थाओं के अनुकूल हो । फिर सम्प्रदाय या मत के केन्द्र विन्दु में किसी पराशक्ति की भी अवधारणा धार्मिक चेतना की प्रबल मांग बन जाती है । जिन प्रणीत जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं बन सकता । तीर्थंकरों में ईश्वरत्व की स्थापना अपरिहार्य बन जाती है । राधाकृष्णन् कहते हैं- "जब कृष्ण की आराधना करने वाले जैन मत में प्रविष्ट हुए तो बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि और कृष्ण में एक संबंध स्थापित हो गया। बहुत से हिन्दू देवता भी आ घुसे, यहाँ तक कि आज जैनियों में भी वैष्णव और अवैष्णव दो भिन्न विभाग पाये जाते हैं। करती है । जिस ३. जैन धर्म के प्रणेता तीर्थंकरों की महानता एवं अनन्तता प्रदर्शित करने की भावना भी जैनियों को उनमें ईश्वरत्व स्थापित करने को बाध्य तरह बुद्ध के अनुयायियों ने उन्हें आगे चलकर भगवान का तरह कालान्तर में जैन धर्म में तीर्थंकरों में ईश्वरत्व का जैनधर्म के अनुसार "जो सर्वं ज्ञाता है, सांसारिक प्रेम तथा है, तीनों लोकों में पूज्य है और अपनी आन्तरिक व्याख्या कर सकता है, वहीं धर्म के लिए महान् ईश्वर है ।"3 स्वरूप माना उसी अभिधान किया गया । ४. जैन धर्म में कैवल्य की प्राप्ति अथवा आत्मा का साक्षात्कार ही परम लक्ष्य है । आत्मा और परमात्मा में कोई स्वरूप भेद नहीं है । केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर आत्मा परमात्मरूप हो जाती है । साधक आत्मा के ज्ञान, भाव और संकल्प के तत्व ही मोक्ष की अवस्था में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं । इस तरह साधना पथ पर चल कर केवल ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा के पीछे भी ईश्वरत्व की अभिधारणा छिपी है । ५. धर्म और नैतिकता में गहरा सम्बन्ध है । नैतिकता की प्रबल मांग एक आदर्श की स्थापना है । जैन धर्म में इस आदर्श को तीर्थंकरों के रूप में दर्शाया गया है । असफलता से मुक्त वास्तविक रूप में १. भारतीय दर्शन - राधाकृष्णन पृ० ३०३ तथा "ए क्रिटिकल सर्वे आफ इण्डियन फिलासफी " - सी० डी० शर्मा पे० ६७ । २. भारतीय दर्शन - राधाकृष्णन - पृ० ३०३ । ३. द्रष्टव्य - ग्लिम्पसेज आफ वर्ल्ड रिलीजन्स, पृ० १०७ । ४. धर्म का मर्म, पृ० २३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy