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________________ जैनमत में ईश्वरत्व की अवधारणा 53 रूप में जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। सम्पूर्ण जैनधर्म एवं दर्शन ऐसे ही चौबीसवें तीर्थंकर की वाणी या उपदेश का संकलन है। तीर्थकर की स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तःचेतना को जागृत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। वह हमें आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी देती है । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है । "उत्तराध्यायन सूत्र" में कहा गया है कि "स्तवन से व्यक्ति की दर्शन विशुद्धि होती है उसका दृष्टिकोण सम्यक् बनता है और परिणामस्वरूप वह आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है।" "जिस प्रकार भेड़ बकरियों के साथ पला हुआ सिंह का बच्चा वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार साधक तीर्थकर के गुण, कीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व को शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है ।"२ भगवद् भक्ति से पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है। "आवश्यक नियुक्ति" में जैनाचार्य भद्रबाहु ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि भगवान के नाम स्मरण से पाप क्षीण हो जाते हैं । आचार्य विनय चन्द्र जी भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं : पाप पराल को पुंज वन्यो अति, मानों मेरू आकारों। ते तुम नाम हुताश्न सेती, सहज ही प्रजलत सारो ।। "हे प्रभु आपकी नामरूपी अग्नि में इतनी शक्ति है कि उससे मेरू समान पाप समूह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।" III यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब जैनधर्म ईश्वर का खण्डन करता है तो फिर क्यों तीर्थंकरों को ईश्वर रूप में स्वीकार करता है और उसमें ईश्वरीय गुणों का विधान करता है ? अगर हम इस तथ्य पर गहराई से विचार करें तो निम्नलिखित कारण सामने आते हैं। तीर्थंकरों में ईश्वरत्व की अवधारणा के कारण या आधार निम्नलिखित हैं : (अ) मनोवैज्ञानिक कारण (ब) धार्मिक कारण (स) नैतिक कारण । संक्षेप में हम इन कारणों की व्याख्या यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। १. यथार्थ में जैन धर्म में भक्ति का कोई स्थान नहीं है। इसके अनुसार सब प्रकार के लगाव को समाप्त हो जाना चाहिए। वैयक्तिक प्रेम को तपस्या की ज्वाला में भस्मसात कर देना चाहिए, लेकिन दुर्बल, सीमित एवं अपूर्ण मानव महान् तीर्थंकरों की भक्ति के लिए विवश हो जाता है। भले ही कितना ही अनीश्वरवादी, १. वहीं पृ० ३२ । ३. वहीं पृ० ३२। २. उद्धृत वहीं पु० ३१ । ४. वहीं पृ० ३२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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