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जैनमत में ईश्वरत्व की अवधारणा
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जाते हैं। इस तरह जगत् का निर्माण एक स्वाभाविक परिणति है। ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है । विना उसकी सत्ता के ही सृष्टि का कार्य चलता रहता है।
जैन मत में मानव प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है। मानव से परे किसी अन्य श्रेष्ठ सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। कर्म से ही जीवन का साध्य प्राप्त किया जा सकता है। साधना ही व्यक्ति को परमात्मपद की प्राप्ति करा सकती है। जैन धर्म में साध्य एवं साधक में अभेद माना गया है। समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते है', "पर द्रव्य का परिहार एवं शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है ।"२ आचार्य हेमचन्द्र का कहना है कि कषायों एवं इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है । वस्तुतः "जैन साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं है, वह तो साधक का अपना ही निजरूप है। उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है । साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं है वरन उसके अन्दर ही है। साधक को उसे पाना भी नहीं है क्योंकि पाया वह जाता है जो व्यक्ति में अपने में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो।" वह आत्मा जो कषाय और राग द्वेष से युक्त हैं और उनसे युक्त होने के कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, वही आत्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं स्वपूर्ण बन जाता हैं । उपाध्याय अमर मुनि जी कहते हैं कि आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है । इसीलिए जैनधर्म में आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहा गया है-"अप्पा तो परमप्पा" यानि आत्मा ही परमात्मा है । फर्क केवल कर्मरूप आवरण का है।
जैनधर्म में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि मनुष्य परमात्मपद को अपने ही प्रयत्न से प्राप्त कर सकता है, ईश्वर कृपा से नहीं। स्वप्रयत्न, स्वसाधना एवं स्वकर्म ही उसे उसके लक्ष्य तक पहुँचा सकते है। "जैन धर्म ने किसी विश्वनियंता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्म दशा को प्राप्त कर सकता है ।"७ भगवान महावीर ने "आचारांग" एवं "उत्तराध्ययन सूत्र" में इस तथ्य की ओर स्पष्ट रूप से संकेत किया है कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है तब इस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद अनुभूति न हो अतः त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में होने वाले रागद्वेष का करना है । जैन धर्म केवल उन पुरुषों के लिए है जो
१. वही, ५/२३ । २. समयसार टीका ३०५। ३. योगशास्त्र-४/५ । ४. धर्म का ममं-डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी,
१९८६ पे० २२। ५. वही, पे० २३ । ६. वही। ७. "जैन आध्यात्मवाद : आधुनिक सन्दर्भ में-डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम,
लघु प्रकाशन-११ : १९८३ पे० १५-१६ । ८. आचारांग सूत्र २/१५ तथा उत्तराध्यायन सूत्र ३२/१०१ ।
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