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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
इस चक्र से बच निकलने का एक ही मार्ग है कि हम एक स्वयंभू स्रष्टा की कल्पना कर लें जो अन्य सब पदार्थों का स्रष्टा है । जैन विचारक प्रश्न करते हैं कि किसी एक प्राणी विशेष
यह संभव हो सकता है कि उसे स्वयंभ एवं नित्य मान लिया जाय तो क्यों नहीं अनेक पदार्थों एवं प्राणियों को ही स्वयंभ एवं आधार रूप में स्वीकार कर लिया जाय। पूर्वपक्षी इस पर आक्षेप करता है कि अनेक ईश्वरों को मानने से विश्व की व्यवस्था एवं सामंजस्य की व्याख्या नहीं हो सकती। इस तर्क के विरुद्ध जैनियों का यह कहना है कि जिस प्रकार एक महल के निर्माण में अनेक शिल्पकारों की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार विश्व के निर्माण में अनेक ईश्वरों को मानने में क्या हर्ज है ? इसका उत्तर ईश्वरवादियों के पास नहीं है।
उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनमत में स्रष्टा के रूप में ईश्वरवाद की मान्यताओं का खण्डन किया गया है। हमें यहां पर उन आधारों (कारणों) पर प्रकाश डालना अपरिहार्य है जिनके द्वारा जैन ईश्वर की अवधारणा का खण्डन करते हैं । उन कारणों को हम इस रूप में रख सकते हैं :
१. जगत की रचना द्रव्यों से हुई है। २. जगत के निर्माण अथवा सृष्टि की आवश्यकता नहीं है।
३. मनुष्य अपना भाग्यविधाता स्वयं है। कर्म से ही जीवन का साध्य प्रास किया जा सकता है। साधना द्वारा ही व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर सकता है, ईश्वर की कृपा से नहीं।
भानव और विश्व की प्रत्येक वस्तु का कारण जैनियों के अनुसार द्रव्य है। द्रव्य संख्या में छः हैं : दिक्, काल, भूत (पुद्गल), जीव, क्रिया और निष्क्रियता । इन्हीं छः द्रव्यों के पारस्परिक संयोग एवं सम्मिश्रण के कारण विश्व की वस्तुओं एवं मानव की उत्पत्ति होती है । असंख्य जीवों एवं पदार्थों की परस्पर प्रतिक्रिया के सिद्धान्त को स्वीकार कर जैनदर्शन इस विश्व के विकास को सम्भव बना देता है । जगत् के सृजन अथवा संहार के लिए भी ईश्वर को मानने को कोई आवश्यकता नहीं है। इसके मत से “विद्यमान पदार्थों का नाश नहीं हो सकता और न ही असत् से सृष्टि का निर्माण सम्भव है। जन्म अथवा विनाश वस्तुओं के अपने गुणों एवं प्रकारों के कारण होता है ।"3 पदार्थ ही अपनी-अपनी पारस्परिक क्रिया और प्रतिक्रिया से नये गुण समूह को उत्पन्न करते हैं। पुद्गल के सबसे छोटे भाग को-जिसका और विभाग नहीं हो सकता-“अणु" कहते हैं। दो या दो से अधिक अणुओं के संयोग से “संघात" या "स्कन्ध" बनता है। हमारे शरीर और अन्य जड़ द्रव्य अणुओं के संयोग से ही बने सन्धान हैं । मन, वचन तथा प्राण जड़ तत्त्वों से ही निर्मित है। पुद्गल के चार गुण होते हैं-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण । ये गुण अणुओं तथा संघातों में भी पाये
१.सूत्रकृतांग २:७, ४८ और ५१ तथा १:१,१। २. भारतीय वशंन भाग १ राधाकृष्णन पे० ३०२ । ३. पञ्चास्तिकायसमयसार, १५। ४. वस्वार्थसूत्र-५/१९ ।
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