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________________ ब्राह्मण : बुद्ध की दृष्टि में 275 बुद्ध के अनुसार ब्राह्मण का अर्थ है निष्पाप, निर्मल, शुद्ध व्यक्ति, ज्ञानी, अर्हत् अर्थात् जिसने अन्दर और बाहर के मनों को प्रक्षालित कर लिया है, सभी प्रकार की तृष्णा के बंधनों को काट दिया है, आसक्ति को छोड़ दिया है । बुद्ध की दृष्टि में ब्राह्मण पूर्णता का प्रतीक है । अर्थात् जिसने 'शील', 'समाधि' और 'प्रज्ञा' की साधना की है । 'शील' का अर्थ होता है दुश्चरित्र का विशोधन । बुरे कर्मों से अपने को विरत कर जो कुशल कर्म करता है, वह शीलवान् कहलाता है । आचार के मूल में इन्द्रिय संयम अथवा आत्मसंयम है । संयमी व्यक्ति मन, वचन और कर्म से दुष्कर्म नहीं करते क्योंकि वे सम्वरयुक्त होते हैं । ६ बुद्ध ने ऐसे व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहा है । भगवान् बुद्ध ने ब्राह्मण की तुलना पानी में लिप्त न होने वाले कमल तथा आरे की नोक पर न टिक सकने वाले सरसों के दाने से करते हुए कहा है कि विषयों में लिप्त नहीं होते ।१७ लोभ, द्वेष और मोह को दूर करने के कारण उसका चित्त स्थित और शांत रहता है । वह शांत करता है और न ही किसी पर प्रहार को ध्यानी कहा गया है । उसे ध्यान सम्यक् ज्ञान होता है । प्रज्ञा के उदय से है उसकी सभी तृष्णा नष्ट हो जाने से, जाता हो जाता है । संसार में रहकर भी वह संसार का नहीं होता । संसार के मूल में विद्यमान तृष्णा और आसक्ति का त्याग करने के कारण वह समस्त बंधनों से रहित हो जाता है । वह इस दुर्गम संसार से तर जाता है और निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । वैसे व्यक्ति को अनेक नामों से पुकारा गया है । वही ऋषभ है, वही बुद्ध है, वही महर्षि है और वही ब्राह्मण है । १८ ब्राह्मण के विषय में संक्षेपतः कहा है, जिसकी प्रज्ञा पूर्ण हो चुकी है जिसने चित्त से सब कुछ सहन करता है । वह न तो क्रोष करता है । वह अपरिग्रही और त्यागी होता है । ब्राह्मण में पारंगत बताया गया है । ऐसे ध्यानी ब्राह्मण को उसके सभी बंधन कट जाते हैं, वह अनासक्त हो जाता वास्तविक अर्थ में उसका संसार से संबंध समाप्त हो जा सकता है कि जिसका पुनर्जन्म क्षीण हो गया अपना सब कुछ पूरा कर लिया है वही ब्राह्मण है । इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि बुद्ध जन्मना वर्णसिद्धान्त के विरोधी थे। यों तो भारत में जाति भेद का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है परन्तु प्रारम्भिक काल में यह रूढ़ नहीं था । व्यक्ति विशेष को यह अधिकार प्राप्त था कि वह मनोनुकूल वर्ण का सदस्य बन सके परन्तु कालान्तर में जातिभेद संबंधी मनुष्य की धारणाएँ रूढ़ होती गई और उसके पेशे वंशानुगत हो गए । बुद्ध को हम अब्राह्मणोचित कर्मों में संलग्न तथा गुणहीन ब्राह्मणों का विरोध करते देखते हैं किन्तु ब्राह्मणत्व से सम्पन्न ब्राह्मण की निन्दा करते हुए हम उन्हें नहीं पाते हैं । वे इसके पक्ष में नहीं थे कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से हम किसी व्यक्ति को श्रद्धा का पात्र मान लें । जब जाति व्यवस्था की बात उठती थी तो वह क्षत्रियों को सर्वश्रेष्ठ बतलाते थे । इस मत की पुष्टि दीघनिकाय के 'अम्बट्ट सुत्त' से होती है । 19 भगवान् बुद्ध वे अट्ठक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि तथा भृगु जैसे अतीत के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की सादगीपूर्ण जीवन शैली तथा सत्यान्वेषण की आध्यात्मिक क्षमता की भूरिशः प्रशंसा की है ।" सुत्तनिपात के 'ब्राह्मणधम्मिक सुत्त' में बुद्ध ने उस सन्दर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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