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ब्राह्मण : बुद्ध की दृष्टि में
राजीव कुमार अनुसंधान प्रज्ञ *
सामान्यतौर पर यह मान्यतया प्रचलित है कि बुद्ध ब्राह्मण विरोधी थे । किन्तु पालि पिटक साहित्य के सम्यक् अनुशीलन से इस मान्यता को समर्थन नहीं मिलता । यह सत्य है कि बुद्ध ने ब्राह्मणों की परम्परागत श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने जातिवाद से चिपकनेवाले ब्राह्मणों की निन्दा की । बुद्ध ने ब्राह्मणों के धार्मिक दार्शनिक सिद्धान्तों का भी खंडन किया । धर्म, दर्शन और इतिहास का अध्येता, ब्राह्मण विषयक बुद्ध के इन विचारों को उजागर करता है और इसके आधार पर बौद्धधर्म को ब्राह्मण विरोधी घोषित करता है । किन्तु, यह पूरी वास्तविकता नहीं है । पालि पिटक साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध ब्राह्मणों में भी अत्यधिक लोकप्रिय थे और उनके अनुयायियों में ब्राह्मणों की संख्या सर्वाधिक थी । पालि साहित्य में दर्जनों ब्राह्मण-ग्रामों का उल्लेख मिलता है जहाँ बुद्ध ने बहुमान प्राप्त किया था । बुद्ध ने सच्चे ब्राह्मणों की काफी प्रशंसा की है। ब्राह्मण शिष्यों को दिये गये बुद्ध के उपदेशों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि ये ब्राह्मण शिष्य बौद्धिक एवं आध्यात्मिक रूप से उत्कृष्ट थे । प्रस्तुत शोध-निबंध में हमने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि बौद्धों एवं ब्राह्मणों के मध्य सौहार्द्र तथा बौद्ध धर्म के विकास में उनकी भी सहभागिता थी ।
पालि पिटक साहित्य के अनुसार इस युग में ब्राह्मणों की दो श्रेणियों थी । प्रथम श्रेणी उन ब्राह्मणों की थी जो शास्त्रसम्मत ब्राह्मण कर्म करते थे । वेदों का अध्ययन-अध्यापन करने वाले पुरोहित एवं तपस्वी इस वर्ग के सदस्य थे । बौद्ध लेखकों के अनुसार सच्चे ब्राह्मण तीनों वेदों में पारंगत एवं इतिहास, व्याकरण, लोकायत आदि अनेक विद्याओं के मर्मज्ञ होते थे' | सुनेत्र तथा सेल सदृश अनेक ब्राह्मण प्रकांड पण्डित भी थे जिनके निकट सैकड़ों शिष्यों का जमघट लगा रहता था । सेल नामक ब्राह्मण तीनों वेदों, निघण्टु, कैटुभ, निरुक्त, पाँचवें वेद रूपी इतिहास में पारंगत हो, काव्य, व्याकरण, लोकायत-शास्त्र तथा महापुरुष लक्षणों में निपुण हो ६०० माणवकों को मंत्र पढ़ाता था । "
बुद्धकालीन समाज का बहुसंख्यक जन-समुदाय उस वेदविहित लौकिक ब्राह्मणधर्म का अनुयायी था जिसमें वैदिक यज्ञों की प्रधानता थी । परिणामतः तत्कालीन समाज में पुरोहित बर्ग अत्यंत समादृत हुआ । याजक के रूप में उन्हें गायें, वस्त्राभूषण, शयन-सामग्री आदि अनेकानेक वस्तुएँ दानस्वरूप मिलती थीं।" उन्हें राजाओं द्वारा था जिसकी संज्ञा 'ब्रह्मदेय' पड़ी । कई ब्राह्मणों को 'ब्रह्मदेय' के रूप में ग्राम मिले थे । इस प्रकार के दान पोक्खरसाति, कूटदन्त, लोहिच्च' सोणदन्ड' तथा चंकि 10 जैसे अनेक
भूमिदान भी मिला करता
प्राचीन भारतीय एवं एशियाई अध्ययन मगध विश्वविद्यालय, बोधगया ।
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